29 July 2013

GAYTRI MANTR

गायत्री  मंत्र  में  ' वरेण्यं ' शब्द  प्रकट  करता  है  कि  प्रत्येक  मनुष्य  को  नित्य  श्रेष्ठता  की  ओर  बढ़ना  चाहिये ।  श्रेष्ठ  देखना , श्रेष्ठ  चिंतन  करना , श्रेष्ठ  विचारना , श्रेष्ठ कार्य  करना , इस  प्रकार से   मनुष्य  को  श्रेष्ठता  प्राप्त  होती ।
  धर्म , कर्तव्य , अध्यात्म , सत , चित , आनंद , सत्य , शिव , सुंदर  की  ओर  जो  तत्व  हमें  अग्रसर  करते  हैं , वे  ' वरेण्य ' हैं । गायत्री  मंत्र  का  जप  करने  से , श्रेष्ठता  की  ओर  अभिमुख  होने  से , हमारी  ईश्वर  प्रदत्त  श्रेष्ठता  जाग  पड़ती  है  और  इस  संसार  में  भरे  हुए  नानाविध  पदार्थों  में  से  हम  अपने  लिये  श्रेष्ठता  को  ही  चुनते  हैं ।
     बाग में  गंदगी  से  लेकर  मनोहर  पुष्पों  तक  सभी  पदार्थ  होते  हैं ।  मक्खी  बाग  में  घुसते  ही  गंदगी  ढूंढने  लगती  है  और  गंदगी  का  स्वाद  लेती  हुई  प्रसन्न  होती  है । मधुमक्खी  इस  बाग  में  जाती  है  तो  मनोहर  पुष्पों  में  से  मधुर  पराग  इकट्ठा  करती  है । कोकिल  उस  बाग में  जाती  है  तो  मुग्ध  होकर  कूकती  है । चमगादड़  उस  बाग  में  घुसता  है  तो  उसके  उत्तम  फल - फूलों  को  कुतर -कुतर  कर  जमीन  पर  ढेर  लगाता और  उसे  बगीचे  को  कुरूप बनाता  है । ये चारों  प्राणी  अपने -अपने  भाव  के  अनुसार क्रिया  प्रकट  करते  हैं  जिनके  भीतर  जो  भाव  है , वही  उसकी  क्रिया  में  प्रकट  होता  है ।
       इसी  प्रकार  जब  हमारा  द्रष्टिकोण  वरेण्य मय   होता  है  तो  ऐसी  हंस -द्रष्टि  प्राप्त  होती  है , जिसके  द्वारा   सर्वत्र  श्रेष्ठता  ही  द्रष्टिगोचर  होती  है ।
   जिन्हें  हम  बुरी वस्तुएं  समझते  हैं , जिन  बातों  को  अप्रिय  समझते  हैं ,उनमे  हमारी  जागरूकता , विवेक -बुद्धि  को  जाग्रत  करने  की  शक्ति  होती   है , उससे  अनुभव  बढ़ता  है । इस  प्रकार  जब  हम  गंभीरतापूर्वक  विचार  करते  हैं  तो  बुराई  के  गर्भ  में  श्रेष्ठता  प्रतीत  होती , इस  प्रकार  बुराई  भी  हमारी  श्रेष्ठता  को  बढ़ाने  का  हेतु  बनती  है । 

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