21 July 2013

PEARL

'हम वह प्रकाश -स्तम्भ बनेगें जो विकराल लहरों से भरे समुद्र में भटकते जहाजों को मार्ग दिखाते हैं | '
  विचार -क्रान्ति के अग्रदूत कुमारजीव का जन्म चौथी शताब्दी में कश्मीर के कूची इलाके में हुआ | पिता की मृत्यु के बाद माँ ने मेहनत -मजदूरी करके उनका पालन -पोषण किया |
उनकी शिक्षा के लिये वे उन्हें लेकर मीलों की कष्ट साध्य यात्रा करते आचार्य बंधुदत्त के आश्रम में जा पहुंची | वितस्ता नदी के किनारे बना यह आश्रम समूचे भारत में अपनी गुणवता की धाक जमाये था | आचार्य इसे
'मानव जीवन की प्रयोगशाला' कहते थे |
  जीवन विद्दा के इस आचार्य ने बालक की अनूठी प्रतिभा को पहचाना और गढ़ने में जुट गये | परिणामस्वरूप कुमारजीव आचार्य की अनोखी कलाकृति के रूप में सामने आया | अध्ययन समाप्ति के बाद जब आश्रम से विदा का समय आया तो गुरुदेव ने कहा --"इन दिनों व्यक्ति और समाज अनेक कठिनाइयों और चिन्ताओं से ग्रस्त हैं ,इसका कारण है -बुद्धि विभ्रम अथवा आस्था संकट | इस समस्या का एक ही समाधान है --सद्विचार ,अपने विवेक और कौशल से सद्ज्ञान का प्रसार कर लोकमानस को परिष्कृत करना | "
आचार्य ने कहा -अपने को किसी क्षेत्र विशेष में मत बांधना ,समूचा विश्व तुम्हारा घर है ,विचार -क्रान्ति के अग्रदूत बनो ,यदि मानव जाति को आस्था संकट से छुड़ाने में जुट सके तो समझना दक्षिणा दे दी | "
                  आचार्य के चरणों में प्रणाम कर कुमारजीव कर्म क्षेत्र की ओर बढ़ चले ---
    सद्ज्ञान के प्रसार के दौरान उनकी मित्रता काशगर राज्य के विद्वान् बुद्धियश से हुई | बुद्धियश ने कुमारजीव को काशगर में रुक जाने को कहा और कहा -"तुम्हारा विवाह सुंदर कन्या से करा देंगे ,यहां का राजा विद्वानों का बड़ा आदर करता है ,तुम्हे धन ,यश व सुख सब एक साथ मिलेगा | "
            कुमारजीव ने कहा -"मेरे लिये विद्दा का अर्थ है -इनसान की जिंदगी इनसान के लिये है ,इस बात का शिक्षण ,जीवन जीने की कला का बोध कराने की जिम्मेदारी गुरुदेव ने मेरे कन्धों पर डाली है इससे मैं रंच मात्र नहीं हट सकता | "
कुमारजीव का उत्तर सुन बुद्धियश उनकी महानता के आगे नतमस्तक हो गया ,उसने भी उन्हें सहयोग देने का वचन दिया |
अपने विद्दा विस्तार के क्रम में कुमारजीव चीन गये ,चीनी भाषा सीखी ,भारत के विचारपूर्ण साहित्य का चीनी भाषा में अनुवाद किया | लगभग सौ ग्रंथों के अनुवाद के साथ भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के प्रसार हेतु मौलिक ग्रंथ रचे इसी बीच बुद्धियश भी अपने मित्र के पास आ पहुंचे ,दोनों मित्रों ने मिलकर अनेकोँ सहयोगी तैयार किये ,अनेक बुझे हुए दीपों को जलाया | भगवान तथागत के आदर्शों के अनुरूप सादा जीवन जीते हुए जीवन के अंतिम क्षण तक क्रियाशील रहे | उनका एक ही संदेश था --जीवन विद्दा में निष्णात ही विद्दा प्रसार कर सकते हैं | उनके इस संदेश को सुन अनेकोँ सचल प्रकाश दीप बने | 

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