खुशी, दिव्यता एवं मानवता की राह हमारे अंदर है | हमारी चेतना के अंतरतम में वह दिव्य प्रकाश सदैव से विद्दमान रहा है, जो हमारी भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है ।
शिष्य आनंद ने तथागत से प्रार्थना की---" भगवन ! आप इस वटवृक्ष की छाया में विश्राम करें, समीपवर्ती सरोवर का जल जंगली जानवरों ने कूदकर गंदा कर दिया है । मैं अभी जाकर सम्मुख पर्वतीय क्षेत्र में बह रही सरिता से आपके लिये शीतल जल लेकर आता हूँ ।
तथागत हँसे और बोले--" तुम एक बार फिर इसी सरोवर में जाओ और जल यहीं से ले आओ । "
आनंद पुन: वहां तक गये और पानी गंदा होने के कारण वापस लौट आये ।
भगवान बुद्ध ने इसी प्रकार तीन बार आनंद को उसी सरोवर में भेजा । वे तीनों बार वही उत्तर लेकर लौटे । चौथी बार तथागत के आग्रह पर जब वे पुन: वहां पहुंचे तो देखा, संपूर्ण जलराशि स्थिर हो चुकी है और गंदगी सतह पर बैठ गई है । वे जल लेकर लौटे और भगवान बुद्ध को सौंपते हुए उन्होंने कहा--" भगवन ! आश्चर्य है जो जल कई बार जाने पर गंदा मिला, वही इतना निर्मल कैसे हो गया । "
तथागत बोले ------" मनुष्य का मन भी इस सरोवर की भांति है, जिसे विचारों के जंगली जंतु सदैव दूषित करते रहते हैं । हम हार मान कर बैठ जाते हैं या फिर सांसारिकता से हट जाने की सोचते हैं । यदि मन शांत और संयत कर लिया जाये तो मनुष्य का मन फिर वह चाहे कहीं भी रहे, निर्मल और अध्यात्मपरायण हो जाता है । "
शिष्य आनंद ने तथागत से प्रार्थना की---" भगवन ! आप इस वटवृक्ष की छाया में विश्राम करें, समीपवर्ती सरोवर का जल जंगली जानवरों ने कूदकर गंदा कर दिया है । मैं अभी जाकर सम्मुख पर्वतीय क्षेत्र में बह रही सरिता से आपके लिये शीतल जल लेकर आता हूँ ।
तथागत हँसे और बोले--" तुम एक बार फिर इसी सरोवर में जाओ और जल यहीं से ले आओ । "
आनंद पुन: वहां तक गये और पानी गंदा होने के कारण वापस लौट आये ।
भगवान बुद्ध ने इसी प्रकार तीन बार आनंद को उसी सरोवर में भेजा । वे तीनों बार वही उत्तर लेकर लौटे । चौथी बार तथागत के आग्रह पर जब वे पुन: वहां पहुंचे तो देखा, संपूर्ण जलराशि स्थिर हो चुकी है और गंदगी सतह पर बैठ गई है । वे जल लेकर लौटे और भगवान बुद्ध को सौंपते हुए उन्होंने कहा--" भगवन ! आश्चर्य है जो जल कई बार जाने पर गंदा मिला, वही इतना निर्मल कैसे हो गया । "
तथागत बोले ------" मनुष्य का मन भी इस सरोवर की भांति है, जिसे विचारों के जंगली जंतु सदैव दूषित करते रहते हैं । हम हार मान कर बैठ जाते हैं या फिर सांसारिकता से हट जाने की सोचते हैं । यदि मन शांत और संयत कर लिया जाये तो मनुष्य का मन फिर वह चाहे कहीं भी रहे, निर्मल और अध्यात्मपरायण हो जाता है । "
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