' दुःख की प्राप्ति होने पर जो परेशान नहीं होता और सुखों की प्राप्ति में जो निस्पृह है ऐसा व्यक्ति स्थिर बुद्धि कहा जाता है |'
जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं | सामान्य व्यक्ति दुःख को भगवान का दिया दंड मानकर परेशान होते रहते हैं और सुख को भोग में बदल डालते हैं, भोग की प्रक्रिया अंतत: दुःख देती है ।
जीवन जीने की कला हमें यही सिखाती है कि हम सुख को योग बना लें और दुःख को तप बना लें
महिष्मति के प्रथम नागरिक ' करुणाकर ' स्वास्थ्य, विवेक और संपन्नता के प्रेरणास्रोत माने जाते थे । वे प्रचुर संपदा के स्वामी थे तथा उसका उपयोग लोकहित में भी करते थे । एक बार वे तीर्थ यात्रा और जनहिताय दूर देशों की यात्रा पर गये । उनके मित्र उनकी संपदा की रक्षा न कर सके, चोरों ने उनकी सारी संपति चुरा ली । मित्र दुखी थे , सोचते थे कि करुणाकर आयेंगे तो जीवन भर की संपदा चली जाने से दुखी होंगे ।
करुणाकर आये, सारी बात सुनी और मुसकरा दिये और बोले--मित्रों ! चिंता न करो । इस संसार में मैं खाली हाथ आया था । परिजनों के स्नेह-सहयोगऔर अपने विचार एवं पुरुषार्थ के सहारे ही तो संपति कमाई थी । प्रभुकृपा से मेरी इंद्रियां अभी ठीक हैं, विचारों में परिपक्वता आ चुकी है, जीवन का समय अभी समाप्त नहीं हुआ और आप सबके स्नेह सहयोग का पात्र भी हूँ फिर मुझे क्या कमी है ? संपदा फिर आ जायेगी ।
और सचमुच करुणाकर पुन: यश-वैभव के स्वामी बन गये । कोई उनकी सराहना करता तो कहते- धन्य मैं नहीं , वह प्रभु हैं जिसने ऐसी अनमोल संपदाएँ हमें दी हैं ।
जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं | सामान्य व्यक्ति दुःख को भगवान का दिया दंड मानकर परेशान होते रहते हैं और सुख को भोग में बदल डालते हैं, भोग की प्रक्रिया अंतत: दुःख देती है ।
जीवन जीने की कला हमें यही सिखाती है कि हम सुख को योग बना लें और दुःख को तप बना लें
महिष्मति के प्रथम नागरिक ' करुणाकर ' स्वास्थ्य, विवेक और संपन्नता के प्रेरणास्रोत माने जाते थे । वे प्रचुर संपदा के स्वामी थे तथा उसका उपयोग लोकहित में भी करते थे । एक बार वे तीर्थ यात्रा और जनहिताय दूर देशों की यात्रा पर गये । उनके मित्र उनकी संपदा की रक्षा न कर सके, चोरों ने उनकी सारी संपति चुरा ली । मित्र दुखी थे , सोचते थे कि करुणाकर आयेंगे तो जीवन भर की संपदा चली जाने से दुखी होंगे ।
करुणाकर आये, सारी बात सुनी और मुसकरा दिये और बोले--मित्रों ! चिंता न करो । इस संसार में मैं खाली हाथ आया था । परिजनों के स्नेह-सहयोगऔर अपने विचार एवं पुरुषार्थ के सहारे ही तो संपति कमाई थी । प्रभुकृपा से मेरी इंद्रियां अभी ठीक हैं, विचारों में परिपक्वता आ चुकी है, जीवन का समय अभी समाप्त नहीं हुआ और आप सबके स्नेह सहयोग का पात्र भी हूँ फिर मुझे क्या कमी है ? संपदा फिर आ जायेगी ।
और सचमुच करुणाकर पुन: यश-वैभव के स्वामी बन गये । कोई उनकी सराहना करता तो कहते- धन्य मैं नहीं , वह प्रभु हैं जिसने ऐसी अनमोल संपदाएँ हमें दी हैं ।
No comments:
Post a Comment