Choose always the way that seems the best, however rough it may be .
मानवजीवन एक सौभाग्य है जो बार-बार नहीं मिलता | विडंबना यही है कि इसका सदुपयोग करने वाले कम ही होते हैं । जो जीवन का समुचित उपयोग करना जानते हैं, वे क्रमिक गति से ऊँचे उठते हुए चरम ध्येय को अंतत: प्राप्त करके ही रहते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन व अर्जुन दोनों पहुँचे । महाभारत युद्ध के पूर्व कौरव व पांडव दोनों ही कृष्ण को अपने पक्ष में करना चाहते थे । दुर्योधन पहले पहुँचे और सो रहे श्रीकृष्ण के सिरहाने बैठ गये । बाद में अर्जुन आये और अपनी सहज श्रद्धा-भावनावश पैरों के पास बैठ गये । श्रीकृष्ण जागे । अर्जुन पर उनकी द्रष्टि पड़ी । कुशल-क्षेम पूछकर अभिप्राय पूछने ही जा रहे थे कि दुर्योधन बोल उठा, " पहले मैं आया हूँ, मेरी बात सुनी जाये । "
श्रीकृष्ण बोले--" अर्जुन छोटे हैं इसलिये प्राथमिकता तो उन्ही को मिलेगी, पर मांग तुम्हारी भी पूरी करूँगा । एक तरफ मैं हूँ युद्ध में हथियार नहीं उठाऊंगा , दूसरी तरफ मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना
बोलो अर्जुन, तुम दोनों में से क्या लोगे ?
चयन की स्वतंत्रता थी, यह विवेक पर निर्भर था , कौन क्या मांगता है,
भगवान की कृपा अथवा उनका वैभव
अर्जुन बोले, " भगवान ! मैं तो आपको ही लूँगा , भले ही आप युद्ध न करें, बस साथ भर बने रहें । दुर्योधन मन-ही-मन अर्जुन की इस ' मूर्खता ' पर प्रसन्न हुआ और श्रीकृष्ण की विशाल अपराजेय सेना पाकर फूला न समाया ।
अर्जुन के पास भगवान थे, ईश्वर की कृपा थी । अनीतिवादी दुर्योधन इस युद्ध में बंधु-बांधवों सहित हारा और मारा गया ।
दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा का वरण करने वाले तत्व हर मनुष्य के भीतर विद्दमान हैं ,
एक को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं, एवं दूसरे को विवेक या सुबुद्धि कह सकते हैं
किसका चयन व्यक्ति करता है , यह उसकी स्वतंत्रता है ।
मानवजीवन एक सौभाग्य है जो बार-बार नहीं मिलता | विडंबना यही है कि इसका सदुपयोग करने वाले कम ही होते हैं । जो जीवन का समुचित उपयोग करना जानते हैं, वे क्रमिक गति से ऊँचे उठते हुए चरम ध्येय को अंतत: प्राप्त करके ही रहते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन व अर्जुन दोनों पहुँचे । महाभारत युद्ध के पूर्व कौरव व पांडव दोनों ही कृष्ण को अपने पक्ष में करना चाहते थे । दुर्योधन पहले पहुँचे और सो रहे श्रीकृष्ण के सिरहाने बैठ गये । बाद में अर्जुन आये और अपनी सहज श्रद्धा-भावनावश पैरों के पास बैठ गये । श्रीकृष्ण जागे । अर्जुन पर उनकी द्रष्टि पड़ी । कुशल-क्षेम पूछकर अभिप्राय पूछने ही जा रहे थे कि दुर्योधन बोल उठा, " पहले मैं आया हूँ, मेरी बात सुनी जाये । "
श्रीकृष्ण बोले--" अर्जुन छोटे हैं इसलिये प्राथमिकता तो उन्ही को मिलेगी, पर मांग तुम्हारी भी पूरी करूँगा । एक तरफ मैं हूँ युद्ध में हथियार नहीं उठाऊंगा , दूसरी तरफ मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना
बोलो अर्जुन, तुम दोनों में से क्या लोगे ?
चयन की स्वतंत्रता थी, यह विवेक पर निर्भर था , कौन क्या मांगता है,
भगवान की कृपा अथवा उनका वैभव
अर्जुन बोले, " भगवान ! मैं तो आपको ही लूँगा , भले ही आप युद्ध न करें, बस साथ भर बने रहें । दुर्योधन मन-ही-मन अर्जुन की इस ' मूर्खता ' पर प्रसन्न हुआ और श्रीकृष्ण की विशाल अपराजेय सेना पाकर फूला न समाया ।
अर्जुन के पास भगवान थे, ईश्वर की कृपा थी । अनीतिवादी दुर्योधन इस युद्ध में बंधु-बांधवों सहित हारा और मारा गया ।
दुर्योधन जैसे अनीति का चयन करने वाले एवं अर्जुन जैसे ईश्वरीय कृपा का वरण करने वाले तत्व हर मनुष्य के भीतर विद्दमान हैं ,
एक को अविवेक या दुर्बुद्धि कह सकते हैं, एवं दूसरे को विवेक या सुबुद्धि कह सकते हैं
किसका चयन व्यक्ति करता है , यह उसकी स्वतंत्रता है ।
No comments:
Post a Comment