' ईश्वरीय शरणागति से मन को अदभुत शक्ति मिलती है और व्यक्ति सामान्य प्रार्थना से मिलने वाले वांछित लाभ की तुलना में सैकड़ों-हजारों गुना फायदे में रहता है | वह किसी एक समस्या से ही मुक्त नहीं होता, वरन उसका संपूर्ण जीवन ही रूपांतरित और दिव्य बन जाता है |
बंगाल के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और साधक श्याम सुंदर चक्रवर्ती जब बर्मा के थायरमो नगर में 1902 में नजरबंद हुए, तो वहां उन्होंने एक पुस्तक लिखी ' थ्रू सोलीट्युड एंड सोरो ' | इसमें अपने मन की गति का जो वर्णन किया है, वह उल्लेखनीय है | वे लिखते हैं---- " मैंने सोचा कि संपूर्ण आत्मसमर्पण का ढंग मुझे पुष्पों से सीखना चाहिये, जो अपनी तनिक भी चिंता न करके दूसरों की सतत सेवा किया करता है | बिना ऐसा बने जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में निश्चिंत एवं प्रसन्न रहने की आशा करना व्यर्थ है | "
महाभारत हो चुका था | महर्षि जरत्कारू के आश्रम में दो शिष्यों में चर्चा चल रही थी | वह कह रहे थे---" कर्ण युद्ध विद्दा में अर्जुन से श्रेष्ठ थे, महादानी थे, आत्मबल के धनी थे, फिर भी क्यों अर्जुन से हार गये ? " समाधान न मिलने पर गुरुदेव के पास गये और पूछा |
गुरुदेव ने स्पष्ट किया----- " अर्जुन को ' नर ' और कृष्ण को ' नारायण ' कहा गया है | नर-नारायण का जोड़ा ही असुरता से जीतता है | कर्ण अर्जुन की अपेक्षा श्रेष्ठ नर भले हों, पर उनने अपने आपको ही सब कुछ माना, नारायण को पूरक नहीं बनाया, इसलिये भटका तो संभल नहीं पाया,
पूरक सत्ता का लाभ उन्हें नहीं मिल सका | यही उसकी पराजय का मुख्य कारण रहा | "
बंगाल के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और साधक श्याम सुंदर चक्रवर्ती जब बर्मा के थायरमो नगर में 1902 में नजरबंद हुए, तो वहां उन्होंने एक पुस्तक लिखी ' थ्रू सोलीट्युड एंड सोरो ' | इसमें अपने मन की गति का जो वर्णन किया है, वह उल्लेखनीय है | वे लिखते हैं---- " मैंने सोचा कि संपूर्ण आत्मसमर्पण का ढंग मुझे पुष्पों से सीखना चाहिये, जो अपनी तनिक भी चिंता न करके दूसरों की सतत सेवा किया करता है | बिना ऐसा बने जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में निश्चिंत एवं प्रसन्न रहने की आशा करना व्यर्थ है | "
महाभारत हो चुका था | महर्षि जरत्कारू के आश्रम में दो शिष्यों में चर्चा चल रही थी | वह कह रहे थे---" कर्ण युद्ध विद्दा में अर्जुन से श्रेष्ठ थे, महादानी थे, आत्मबल के धनी थे, फिर भी क्यों अर्जुन से हार गये ? " समाधान न मिलने पर गुरुदेव के पास गये और पूछा |
गुरुदेव ने स्पष्ट किया----- " अर्जुन को ' नर ' और कृष्ण को ' नारायण ' कहा गया है | नर-नारायण का जोड़ा ही असुरता से जीतता है | कर्ण अर्जुन की अपेक्षा श्रेष्ठ नर भले हों, पर उनने अपने आपको ही सब कुछ माना, नारायण को पूरक नहीं बनाया, इसलिये भटका तो संभल नहीं पाया,
पूरक सत्ता का लाभ उन्हें नहीं मिल सका | यही उसकी पराजय का मुख्य कारण रहा | "
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