सांसारिक रिश्तों को निभाते समय अपना एक रिश्ता भगवान से बना लेना चाहिये |
रिश्तों का संबंध मुख्यत: व्यक्ति की भावनाओं से होता है | मनुष्य की भावनाएँ यदि संसार की ओर उन्मुख होती हैं तो मनुष्य सांसारिक रिश्तों में इस तरह उलझ जाता है कि फिर उसे कोई सुध नहीं रहती | उसकी पूरी जिंदगी और उसका पूरा ताना-बाना रिश्तों को सँभालने, उन्हें मजबूत बनाने में लगा रहता है , फिर भी लड़ाइयाँ होती हैं, मनमुटाव होता है |
इसके विपरीत यदि भावनाएँ भगवान की ओर उन्मुख हैं तो ऐसे व्यक्ति का संबंध भगवान से हो जाता है । उसके जीवन में भक्ति का समावेश और भगवान के प्रति द्रढ़ विश्वास होता है । अपने जीवन में आने वाली हर अच्छी-बुरी परिस्थिति में वह भगवान का ही स्मरण करता है और अपने सांसारिक कर्तव्यों का भी निर्वाह करता है । ऐसे व्यक्ति के अंदर ऐसी पात्रता आ जाती है कि वह बिगड़े हुए सांसारिक रिश्तों को सुलझा सकता है और उन्हें सँवार भी सकता है ।
अपने दायित्वों को निभाते हुए ईश्वर का स्मरण करते रहने से, भक्ति से मन स्वच्छ, निर्विकार और निर्मल बनता है, उसमे विवेकशीलता, दूरदर्शिता बढ़ती है । इस निर्मल बुद्धि को ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं ।
अपने ऐसे भक्त को भगवान बुद्धियोग --- भावनात्मक योग्यता देते हैं । जिससे व्यक्ति अपनी कुशाग्र बुद्धि से भावनाओं का सही उपयोग व नियोजन कर पाता है ।
राजा के रूप में भक्त प्रह्लाद ने अपने जीवन में अनेक उलझे रिश्तों को सुलझाया ।
एक बार इनके दरबार में दो माताओं ने एक साथ गुहार लगाई और दोनों कहने लगीं कि इस बच्चे की माँ मैं हूँ । बच्चा बहुत छोटा था, असली माँ को पहचान नहीं सकता था, दोनों के पास आसानी से चला जाता था । दोनों ने उसकी माँ होने के पक्के सबूत दिये । सभी दरबारी सोच में पड़ गये कि इस समस्या का समाधान कैसे होगा । निर्णय तो महाराज प्रह्लाद को करना था, उन्होंने प्रभु का स्मरण किया और एक घोषणा की-- " इस बच्चे को दो बराबर भागों में काट दिया जाये और दोनों माताओं को एक-एक टुकड़ा दे दिया जाये । " यह सुनकर सारी सभा स्तब्ध रह गई ।
तभी दोनों में से एक माता बोली-- " महाराज ! आप ऐसा न करें । इसे ही यह बच्चा दे दें, ये बच्चा इसी का है, मेरा नहीं है । मैं इसकी माँ नहीं हूँ । " यह कहकर वह फफककर रो पड़ी, जबकि दूसरी महिला कुछ भी नहीं बोली । इसके तुरंत बाद महाराज ने अपना निर्णय सुनाया--" यह बच्चा इस रोने वाली माता का है ,इसे यह बच्चा दे दिया जाये और दूसरी महिला को बंदी बना दिया जाये । "
महाराज जानते थे कि जिसमे अपने बच्चे के लिये संवेदना नहीं वह माँ नहीं है ।
माँ वही है, जो अपने जीवन में आने वाली किसी भी परिस्थिति में बच्चे का हित देखती है ।
माँ और बच्चे का रिश्ता इस संसार में सबसे अधिक भावनाओं से भरा होता है ।
रिश्तों का संबंध मुख्यत: व्यक्ति की भावनाओं से होता है | मनुष्य की भावनाएँ यदि संसार की ओर उन्मुख होती हैं तो मनुष्य सांसारिक रिश्तों में इस तरह उलझ जाता है कि फिर उसे कोई सुध नहीं रहती | उसकी पूरी जिंदगी और उसका पूरा ताना-बाना रिश्तों को सँभालने, उन्हें मजबूत बनाने में लगा रहता है , फिर भी लड़ाइयाँ होती हैं, मनमुटाव होता है |
इसके विपरीत यदि भावनाएँ भगवान की ओर उन्मुख हैं तो ऐसे व्यक्ति का संबंध भगवान से हो जाता है । उसके जीवन में भक्ति का समावेश और भगवान के प्रति द्रढ़ विश्वास होता है । अपने जीवन में आने वाली हर अच्छी-बुरी परिस्थिति में वह भगवान का ही स्मरण करता है और अपने सांसारिक कर्तव्यों का भी निर्वाह करता है । ऐसे व्यक्ति के अंदर ऐसी पात्रता आ जाती है कि वह बिगड़े हुए सांसारिक रिश्तों को सुलझा सकता है और उन्हें सँवार भी सकता है ।
अपने दायित्वों को निभाते हुए ईश्वर का स्मरण करते रहने से, भक्ति से मन स्वच्छ, निर्विकार और निर्मल बनता है, उसमे विवेकशीलता, दूरदर्शिता बढ़ती है । इस निर्मल बुद्धि को ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं ।
अपने ऐसे भक्त को भगवान बुद्धियोग --- भावनात्मक योग्यता देते हैं । जिससे व्यक्ति अपनी कुशाग्र बुद्धि से भावनाओं का सही उपयोग व नियोजन कर पाता है ।
राजा के रूप में भक्त प्रह्लाद ने अपने जीवन में अनेक उलझे रिश्तों को सुलझाया ।
एक बार इनके दरबार में दो माताओं ने एक साथ गुहार लगाई और दोनों कहने लगीं कि इस बच्चे की माँ मैं हूँ । बच्चा बहुत छोटा था, असली माँ को पहचान नहीं सकता था, दोनों के पास आसानी से चला जाता था । दोनों ने उसकी माँ होने के पक्के सबूत दिये । सभी दरबारी सोच में पड़ गये कि इस समस्या का समाधान कैसे होगा । निर्णय तो महाराज प्रह्लाद को करना था, उन्होंने प्रभु का स्मरण किया और एक घोषणा की-- " इस बच्चे को दो बराबर भागों में काट दिया जाये और दोनों माताओं को एक-एक टुकड़ा दे दिया जाये । " यह सुनकर सारी सभा स्तब्ध रह गई ।
तभी दोनों में से एक माता बोली-- " महाराज ! आप ऐसा न करें । इसे ही यह बच्चा दे दें, ये बच्चा इसी का है, मेरा नहीं है । मैं इसकी माँ नहीं हूँ । " यह कहकर वह फफककर रो पड़ी, जबकि दूसरी महिला कुछ भी नहीं बोली । इसके तुरंत बाद महाराज ने अपना निर्णय सुनाया--" यह बच्चा इस रोने वाली माता का है ,इसे यह बच्चा दे दिया जाये और दूसरी महिला को बंदी बना दिया जाये । "
महाराज जानते थे कि जिसमे अपने बच्चे के लिये संवेदना नहीं वह माँ नहीं है ।
माँ वही है, जो अपने जीवन में आने वाली किसी भी परिस्थिति में बच्चे का हित देखती है ।
माँ और बच्चे का रिश्ता इस संसार में सबसे अधिक भावनाओं से भरा होता है ।
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