आज उपासनागृहों की संख्या और उसमे जाने वालों की तादाद बढ़ते चले जाने के बावजूद नास्तिकता तेजी से बढ़ती चली जा रही है । व्यक्ति परमसत्ता के अनुशासन की उपेक्षा कर कर्मकांडों के आडम्बर में उलझा निजी जीवन में अनैतिक आचरण करता देखा जाता है । आज समाज में छाई अनास्था स्वयं को नास्तिक कहने वालों की वजह से नहीं है अपितु उन आस्तिकों की वजह से है जो स्वयं को आस्तिक, ' भगवान का भक्त ' कहते हैं किंतु अपने व्यक्तित्व को संस्कारवान और शालीन बनाने का जरा भी प्रयास नहीं करते ।
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता इनके चिंतन में आमूलचूल परिवर्तन की है ।
देवता न चापलूसी से प्रसन्न होते हैं और न ही रिश्वत लेने में उनकी कोई रूचि है । उनका अनुग्रह उन्ही को मिलता है जिसने आत्मपरिष्कार किया । उपासना अंतरंग को परिष्कृत करने के लिये है अपने कुसंस्कारों से निरंतर लड़ते रहना, अपनी बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना और अपने जीवन क्षेत्र में सत्प्रवृतियों की फसल उगाना, सद्गुणों को एक - एक करके व्यवहार में लाना ही सच्ची उपासना-साधना है ।
अपना प्रसुप्त अंतरंग ही सर्वसिद्धि दाता देवता है । उसी को जगाने, प्रखर बनाने के लिये पूजा-उपचारों की विधि-व्यवस्था शास्त्रकारों ने बनाई है । जो इस तथ्य को समझते हैं, भजन-पूजन में सन्निहित आत्मनिर्माण के मर्म को जान लेते हैं वे ही सच्चे साधक है और जो इस दिशा में बिना हारे अनवरत प्रयास करते हैं उन्ही को सिद्धि मिलती है । साधना से सिद्धि का सिद्धांत अकाट्य है ।
बिना आत्म शोधन का भजन निरर्थक जाता है । अपवाद रूप में किसी को कोई दैवी अनुग्रह मिल भी जाये तो उसका परिणाम अंतत: रावण, भस्मासुर,हिरण्यकश्यप, कंस आदि की तरह घोर विपत्ति के रूप में सामने आता है ।
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता इनके चिंतन में आमूलचूल परिवर्तन की है ।
देवता न चापलूसी से प्रसन्न होते हैं और न ही रिश्वत लेने में उनकी कोई रूचि है । उनका अनुग्रह उन्ही को मिलता है जिसने आत्मपरिष्कार किया । उपासना अंतरंग को परिष्कृत करने के लिये है अपने कुसंस्कारों से निरंतर लड़ते रहना, अपनी बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना और अपने जीवन क्षेत्र में सत्प्रवृतियों की फसल उगाना, सद्गुणों को एक - एक करके व्यवहार में लाना ही सच्ची उपासना-साधना है ।
अपना प्रसुप्त अंतरंग ही सर्वसिद्धि दाता देवता है । उसी को जगाने, प्रखर बनाने के लिये पूजा-उपचारों की विधि-व्यवस्था शास्त्रकारों ने बनाई है । जो इस तथ्य को समझते हैं, भजन-पूजन में सन्निहित आत्मनिर्माण के मर्म को जान लेते हैं वे ही सच्चे साधक है और जो इस दिशा में बिना हारे अनवरत प्रयास करते हैं उन्ही को सिद्धि मिलती है । साधना से सिद्धि का सिद्धांत अकाट्य है ।
बिना आत्म शोधन का भजन निरर्थक जाता है । अपवाद रूप में किसी को कोई दैवी अनुग्रह मिल भी जाये तो उसका परिणाम अंतत: रावण, भस्मासुर,हिरण्यकश्यप, कंस आदि की तरह घोर विपत्ति के रूप में सामने आता है ।
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