महान दार्शनिक सुकरात दर्पण में बर-बार अपना मुँह देख रहे थे । शिष्यमंडली उनके इस क्रिया-कलाप को समझ नहीं पा रही थी कि कुरूप सुकरात बार-बार दर्पण क्यों देख रहे हैं ? आखिर एक शिष्य उनसे पूछ ही बैठा-- " गुरुवर ! दर्पण में अपना चेहरा बार-बार क्यों देख रहें हैं ? " सुकरात शिष्य की बात सुनकर हँस पड़े, फिर गंभीर होकर बोले--- " प्रियवर ! तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक
है । मुझ जैसे कुरूप को दर्पण देखने की क्या आवश्यकता है ? लेकिन मेरे शिष्य ! दर्पण सबको देखना चाहिये, चाहे वह सुंदर हो या बदसूरत । "
शिष्य बीच में ही बोल उठा--- " गुरुवर ! कुरूप तो अपनी वास्तविकता जानता है, फिर दर्पण देखने से तो उसे भारी कष्ट होगा । " सुकरात ने शिष्य को समझाते हुए कहा-- " वत्स ! कुरूप को तो दर्पण अवश्य देखना चाहिये जिससे उसे अपने उस रूप को देखकर ध्यान आ जाये कि वह कुरूप है ।
अत: अपने श्रेष्ठ कार्यों से उस कुरूपता को सुंदर बनाकर ढकने का प्रयत्न करे । सुंदर चेहरे को दर्पण इसलिये देखना चाहिये कि ईश्वर ने उसे सौंदर्य दिया है, अत: उसके अनुरूप ही उसे सदैव सुंदर कार्य करना चाहिये । "
आलिवर क्रामवेल की वीरता से मुग्ध एक चित्रकार एक दिन उनके पास जाकर बोला--- " मैं आपका चित्र बनाना चाहता हूँ । " क्रामवेल ने कहा-- " जरुर बनाओ, यदि तुमने मेरा अच्छा चित्र बनाया तो तुम्हे पर्याप्त पारितोषिक मिलेगा । "
क्रामवेल की तरह वीर योद्धा उन दिनों सारी पृथ्वी पर नहीं था, किंतु दुर्भाग्य से वह जितना वीर था, उतना ही बदसूरत भी । उसके मुँह पर एक बड़ा- सा मस्सा था, जिसके कारण उसकी मुखाकृति और भी कुरूप लगती थी । इसलिये चित्रकार ने जान-बूझकर चित्र में वह मस्सा नहीं बनाया । चित्र बड़ा सुंदर बना । चित्रकार उसे लेकर क्रामवेल के पास गया । क्रामवेल ने उसे ध्यान से देखा और कहा-- " मित्र ! चित्र तो बढ़िया है, पर मुझ जैसा नहीं, जब तक मेरी मुखाकृति नहीं लाते, तब तक चित्र मेरे किस काम का ? "
चित्रकार पहले तो झिझका, पर बाद में उसने चित्र लेकर वह मस्सा भी बना दिया । अब तो ऐसा लगने लगा, जैसे क्रामवेल स्वयं चित्र में उतर आया है ।
" अब बन गया अच्छा चित्र । " कहते हुए क्रामवेल ने उसे ले लिया और उसे इनाम देकर कहा---
" मित्र ! मुझे अपनी बुराइयाँ देखने का अभ्यास है । यदि ऐसा न रहा होता तो वह शौर्य अर्जित न कर सका होता, जिसके बल पर मैंने यश कमाया है । "
है । मुझ जैसे कुरूप को दर्पण देखने की क्या आवश्यकता है ? लेकिन मेरे शिष्य ! दर्पण सबको देखना चाहिये, चाहे वह सुंदर हो या बदसूरत । "
शिष्य बीच में ही बोल उठा--- " गुरुवर ! कुरूप तो अपनी वास्तविकता जानता है, फिर दर्पण देखने से तो उसे भारी कष्ट होगा । " सुकरात ने शिष्य को समझाते हुए कहा-- " वत्स ! कुरूप को तो दर्पण अवश्य देखना चाहिये जिससे उसे अपने उस रूप को देखकर ध्यान आ जाये कि वह कुरूप है ।
अत: अपने श्रेष्ठ कार्यों से उस कुरूपता को सुंदर बनाकर ढकने का प्रयत्न करे । सुंदर चेहरे को दर्पण इसलिये देखना चाहिये कि ईश्वर ने उसे सौंदर्य दिया है, अत: उसके अनुरूप ही उसे सदैव सुंदर कार्य करना चाहिये । "
आलिवर क्रामवेल की वीरता से मुग्ध एक चित्रकार एक दिन उनके पास जाकर बोला--- " मैं आपका चित्र बनाना चाहता हूँ । " क्रामवेल ने कहा-- " जरुर बनाओ, यदि तुमने मेरा अच्छा चित्र बनाया तो तुम्हे पर्याप्त पारितोषिक मिलेगा । "
क्रामवेल की तरह वीर योद्धा उन दिनों सारी पृथ्वी पर नहीं था, किंतु दुर्भाग्य से वह जितना वीर था, उतना ही बदसूरत भी । उसके मुँह पर एक बड़ा- सा मस्सा था, जिसके कारण उसकी मुखाकृति और भी कुरूप लगती थी । इसलिये चित्रकार ने जान-बूझकर चित्र में वह मस्सा नहीं बनाया । चित्र बड़ा सुंदर बना । चित्रकार उसे लेकर क्रामवेल के पास गया । क्रामवेल ने उसे ध्यान से देखा और कहा-- " मित्र ! चित्र तो बढ़िया है, पर मुझ जैसा नहीं, जब तक मेरी मुखाकृति नहीं लाते, तब तक चित्र मेरे किस काम का ? "
चित्रकार पहले तो झिझका, पर बाद में उसने चित्र लेकर वह मस्सा भी बना दिया । अब तो ऐसा लगने लगा, जैसे क्रामवेल स्वयं चित्र में उतर आया है ।
" अब बन गया अच्छा चित्र । " कहते हुए क्रामवेल ने उसे ले लिया और उसे इनाम देकर कहा---
" मित्र ! मुझे अपनी बुराइयाँ देखने का अभ्यास है । यदि ऐसा न रहा होता तो वह शौर्य अर्जित न कर सका होता, जिसके बल पर मैंने यश कमाया है । "
No comments:
Post a Comment