' मानवीय भावनाओं को एक दूसरे में घोल देना, क्षत-विक्षत हो रहे समाज को पुन: सौन्दर्य मंडित करने का प्रयास जिस तकनीक से संभव है उसका नाम है------ सांस्कृतिक क्रांति ।
कन्फ्यूशियस ने अपनी एक किताब में लिखा------- मेरे पूर्वज कहते थे कि गाँव के पास एक नदी बहती थी । नदी के उस पार रात को कुत्ते भौंकते थे--- तो हमें आवाज सुनाई पड़ती थी । लेकिन यह पता नहीं था--- कि नदी के पार कौन रहता है ?
नदी बड़ी थी और नाव ईजाद नहीं हुई थी । नदी के पार कोई रहता है--- कोई गाँव है । यह तभी पता चलता था जब सन्नाटे को चीरती हुई कुत्तों के भूँकने की आवाज कान में पड़ती थी । उस गाँव की उनकी अपनी दुनिया थी । इस गाँव की अपनी दुनिया थी ।
आज के युग में आधुनिक सुविधाओं ने दुनिया को एक गाँव में तब्दील कर दिया है । विकास ने मनुष्य को कई गुना ऊँचाई पर क्षितिज के पार पहुँचाया है किंतु इसे न शांति मिली न संतोष ।
तनाव, बेचैनियाँ, भ्रांतियाँ इस सीमा तक बढ़ते चले गये हैं कि आज सारी मानव जाति दुःखी है, रुग्ण है । आज का मानव प्रगति की चरम सीमा पर पहुँचा विकसित मानव है तो वह भोगवादी बनता हुआ चिंतन और आचरण से क्यों पशु को भी पीछे छोड़ता नजर आता है ?
इसका उत्तर किसी आधुनिक चिंतक-वैज्ञानिक के पास नहीं है ।
इसका उत्तर तो एक ऋषि ने सहस्त्राब्दियों पूर्व उपनिषद के काल में दिया था व कहा था------ " भोग भी त्याग के साथ करो । साधनों का उपभोग करो पर भावना त्याग की रखो । स्वयं जियो, औरों को भी जीने दो ।
ऋषि चिंतन की ऊर्जा ही गुस्से व तनाव से भरे विश्वमानव को शांति का संदेश देने में समर्थ है ।
कन्फ्यूशियस ने अपनी एक किताब में लिखा------- मेरे पूर्वज कहते थे कि गाँव के पास एक नदी बहती थी । नदी के उस पार रात को कुत्ते भौंकते थे--- तो हमें आवाज सुनाई पड़ती थी । लेकिन यह पता नहीं था--- कि नदी के पार कौन रहता है ?
नदी बड़ी थी और नाव ईजाद नहीं हुई थी । नदी के पार कोई रहता है--- कोई गाँव है । यह तभी पता चलता था जब सन्नाटे को चीरती हुई कुत्तों के भूँकने की आवाज कान में पड़ती थी । उस गाँव की उनकी अपनी दुनिया थी । इस गाँव की अपनी दुनिया थी ।
आज के युग में आधुनिक सुविधाओं ने दुनिया को एक गाँव में तब्दील कर दिया है । विकास ने मनुष्य को कई गुना ऊँचाई पर क्षितिज के पार पहुँचाया है किंतु इसे न शांति मिली न संतोष ।
तनाव, बेचैनियाँ, भ्रांतियाँ इस सीमा तक बढ़ते चले गये हैं कि आज सारी मानव जाति दुःखी है, रुग्ण है । आज का मानव प्रगति की चरम सीमा पर पहुँचा विकसित मानव है तो वह भोगवादी बनता हुआ चिंतन और आचरण से क्यों पशु को भी पीछे छोड़ता नजर आता है ?
इसका उत्तर किसी आधुनिक चिंतक-वैज्ञानिक के पास नहीं है ।
इसका उत्तर तो एक ऋषि ने सहस्त्राब्दियों पूर्व उपनिषद के काल में दिया था व कहा था------ " भोग भी त्याग के साथ करो । साधनों का उपभोग करो पर भावना त्याग की रखो । स्वयं जियो, औरों को भी जीने दो ।
ऋषि चिंतन की ऊर्जा ही गुस्से व तनाव से भरे विश्वमानव को शांति का संदेश देने में समर्थ है ।
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