' धन से प्राप्त होने वाले सुखों की अपेक्षा अर्जित ज्ञान का सुख अधिक तृप्ति देता है |'
इंग्लैंड में सन १९०० के लगभग एडवर्ड सम्राट का राज्याभिषेक हुआ । जयपुर के महराज सवाई माधोसिंह भी सम्मिलित हुए । उनके साथ एक सादी वेषभूषा के पंडित जी भी थे, नाम था उनका-- पंडित मधुसूदन ओझा । राज्याभिषेक के अवसर पर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान मैकडानल, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् वैडाल, सुविख्यात संसकृतविद श्री टोनी एवं डा.टामस जैसे प्रतिभाशाली यूरोपीय पण्डित भी सम्मिलित हुए थे ।
विलक्षण विद्वान् टामस से जब मधुसूदन ओझा का परिचय कराया गया तो उन्होंने संस्कृत का पद्य बनाकर पंडित जी से प्रश्न किया------
श्र्नोमि लक्ष्म्या मधुसूदनम युतं,
पश्यामि तु त्वामिह चैकमागतम
अर्थात--- माननीय महोदय ! मैंने सुना है मधुसूदन ( विष्णु ) के पास तो सदैव ही लक्ष्मी का वास रहता है पर मैं यहाँ आपको अकेला ही देख रहा हूँ । यह संकेत उनकी पत्नी के साथ न होने पर था और साथ ही उनकी सादगी व निर्धनता पर व्यंग्य भी था ।
पंडित जी जहाँ जाते थे, ज्ञानामृत से लोगों को तृप्त करते थे, फिर यहाँ निरुतर कैसे रहते ?
उन्होंने तुरंत उत्तर दिया--- मधुसूदनस्य द्रष्ट्वा, सरस्वती लालने विशेष रुचिम
रोषादिवायसृतां लक्ष्मीमनु -- नेतुमत्र सौम्यायात ।
अर्थात हे सौम्य ! मधुसूदन कों सरस्वती की सेवा में संलग्न देख कर लक्ष्मी रुष्ट होकर यहाँ ( लंदन )
चली आईं, उन्हें मनाने यहाँ आया हूँ ।
पंडित जी का उत्तर सुनकर विद्वान मंडली हास्य-विभोर हो गई । उनकी विद्वता और प्रतिभा के समक्ष मैकडानल जैसा विद्वान भी नतमस्तक हों गया । लंदन में उनके कई भाषण हुए--जिनसे प्रभावित होकर वेस्ट मिनिस्टर गजट ने लिखा था--- " पण्डित मधुसूदन ओझा वैदिक ज्ञान के अप्रतिम विद्वान हैं, दर्शनशास्त्र के विशाल ज्ञान से अनुप्राणित उस पंडित के मुख-मंडल पर तपस्या का तेज सपष्ट विद्दमान है ।" गजट ने यह भी माना कि " भारतीय-ज्ञान, संस्कृत और अध्यात्म विश्व-शिरोमणि है । जब तक संसार उसको अवगाहन और अनुशीलन नहीं करता अक्षय सुख-शांति के द्वार तब तक बंद ही रहेंगे । "
पंडित जी ने 50 वर्ष तक वेदांत और भारतीय-अध्यात्म का प्रसार किया । लगभग 200 से अधिक ग्रंथों की रचना कर सामाजिक जीवन में धार्मिक और नैतिक विचारों की ज्ञान गंगा प्रवाहित की ।
इंग्लैंड में सन १९०० के लगभग एडवर्ड सम्राट का राज्याभिषेक हुआ । जयपुर के महराज सवाई माधोसिंह भी सम्मिलित हुए । उनके साथ एक सादी वेषभूषा के पंडित जी भी थे, नाम था उनका-- पंडित मधुसूदन ओझा । राज्याभिषेक के अवसर पर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान मैकडानल, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् वैडाल, सुविख्यात संसकृतविद श्री टोनी एवं डा.टामस जैसे प्रतिभाशाली यूरोपीय पण्डित भी सम्मिलित हुए थे ।
विलक्षण विद्वान् टामस से जब मधुसूदन ओझा का परिचय कराया गया तो उन्होंने संस्कृत का पद्य बनाकर पंडित जी से प्रश्न किया------
श्र्नोमि लक्ष्म्या मधुसूदनम युतं,
पश्यामि तु त्वामिह चैकमागतम
अर्थात--- माननीय महोदय ! मैंने सुना है मधुसूदन ( विष्णु ) के पास तो सदैव ही लक्ष्मी का वास रहता है पर मैं यहाँ आपको अकेला ही देख रहा हूँ । यह संकेत उनकी पत्नी के साथ न होने पर था और साथ ही उनकी सादगी व निर्धनता पर व्यंग्य भी था ।
पंडित जी जहाँ जाते थे, ज्ञानामृत से लोगों को तृप्त करते थे, फिर यहाँ निरुतर कैसे रहते ?
उन्होंने तुरंत उत्तर दिया--- मधुसूदनस्य द्रष्ट्वा, सरस्वती लालने विशेष रुचिम
रोषादिवायसृतां लक्ष्मीमनु -- नेतुमत्र सौम्यायात ।
अर्थात हे सौम्य ! मधुसूदन कों सरस्वती की सेवा में संलग्न देख कर लक्ष्मी रुष्ट होकर यहाँ ( लंदन )
चली आईं, उन्हें मनाने यहाँ आया हूँ ।
पंडित जी का उत्तर सुनकर विद्वान मंडली हास्य-विभोर हो गई । उनकी विद्वता और प्रतिभा के समक्ष मैकडानल जैसा विद्वान भी नतमस्तक हों गया । लंदन में उनके कई भाषण हुए--जिनसे प्रभावित होकर वेस्ट मिनिस्टर गजट ने लिखा था--- " पण्डित मधुसूदन ओझा वैदिक ज्ञान के अप्रतिम विद्वान हैं, दर्शनशास्त्र के विशाल ज्ञान से अनुप्राणित उस पंडित के मुख-मंडल पर तपस्या का तेज सपष्ट विद्दमान है ।" गजट ने यह भी माना कि " भारतीय-ज्ञान, संस्कृत और अध्यात्म विश्व-शिरोमणि है । जब तक संसार उसको अवगाहन और अनुशीलन नहीं करता अक्षय सुख-शांति के द्वार तब तक बंद ही रहेंगे । "
पंडित जी ने 50 वर्ष तक वेदांत और भारतीय-अध्यात्म का प्रसार किया । लगभग 200 से अधिक ग्रंथों की रचना कर सामाजिक जीवन में धार्मिक और नैतिक विचारों की ज्ञान गंगा प्रवाहित की ।
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