सम्राट अशोक लोकप्रिय होना चाहते थे, अपनी इस चाहत के लिए कितने ही तरह के नाच-रंग उत्सव आयोजन करवाए, लेकिन सब निष्फल । इन सबके बीच पता नहीं कहां से उसकी क्रूरताओं की, हिंसा भरे कारनामों की चर्चा निकल आती और आम आदमी दहशत के कारण इससे दूर रहने में अपना कल्याण समझता ।
दूसरी ओर कुछ दिन पहले आया एक भिक्षु जिसके पास देह में लिपटे अधफटे चीवर के अलावा कुछ नहीं था । लेकिन उसकी वाणी में जादू था, जनता राग-रंग, उत्सव छोड़कर उनके धर्म-अध्यात्म के प्रवचन सुनने दौड़ पड़ती । कहां साधारण सा भिक्षु और कहां भारत सम्राट अशोक ! सम्राट के लिए यह एक विचित्र पहेली थी कि एक भिक्षु के पास जाने के लिए लोग अपना काम छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और सम्राट का नाम सुनते ही दहशत फैल जाती है । उस समय तक अशोक के लिए धर्म का कोई विशेष अर्थ न था ।
एक दिन सम्राट अशोक महाभिक्षु का प्रवचन सुनने पहुँच गये । भिक्षु मौद्गलायन का गरिमामंडित व्यक्तित्व किसी को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त था, सम्राट ने उन्हें भोजन का निमंत्रण दिया । शायद वे उनकी निष्ठा को परखने के साथ ही उनकी लोकप्रियता का कारण जानना चाहते थे ।
भोजन के बाद सम्राट ने उन्हें अपना महल घुमाया । एक से एक मूल्यवान वस्तुएं और बेशकीमती रत्नों के भंडार को दिखाते हुए कहा--- " ऐसे दुर्लभ रत्न भारत भर में कहीं न मिलेंगे । "
भिक्षु ने कहा--" तब तो इनसे राज्य को भारी आय होती होगी । " " आय ?" अशोक भिक्षु की नादानी पर मुस्कराया और कहा--- " इनकी सुरक्षा पर पर्याप्त व्यय करना पड़ता है । इन पत्थरों से कीमती पत्थर मैंने आपके राज्य में देखा है । आप भी मेरे साथ चलकर देखें । " अशोक ने वहां जाकर देखा तो बहुत झुंझलाया और कहा-- 'ये तो चक्की है । ' भिक्षु ने कहा--- " यह तुम्हारे सभी रत्नों से श्रेष्ठ है, इसकी सुरक्षा पर कुछ खर्च नहीं करना पड़ता और इससे वृद्धा के अन्धे पति और तीन बच्चों का पोषण होता है । "
अशोक को सूझ नहीं रहा था क्या उत्तर दे । भिक्षु ने कहा--- "राजन ! जीवन का रहस्य, त्याग और पुरुषार्थ है, संग्रह में इन दोनों की अवहेलना है । संग्रह का अर्थ है- स्वयं के ऊपर, नियंता के ऊपर और जिस समाज में रहते हैं उस पर चरम अविश्वास । जिसे लोक पर विश्वास नहीं लोक उसे सम्मान क्योँ देगा ? उसे अपना प्रिय क्योँ मानेगा ? और जिसे इन तीनों में से एक पर भी विश्वास है वह क्योँ संग्रह करेगा ?" सम्राट ने देखा भिक्षु की आँखों में तीनों विश्वास की गहरी चमक थी । उसे उसके फटे चीवर और उसे सुनने के लिए उमड़ती भीड़ का कारण ज्ञात हो रहा था । कहते है अगले दिन सम्राट ने अपनी संपति जनहित के कार्यों में समर्पित कर दी और वह ' देवानां प्रिय ' बना
दूसरी ओर कुछ दिन पहले आया एक भिक्षु जिसके पास देह में लिपटे अधफटे चीवर के अलावा कुछ नहीं था । लेकिन उसकी वाणी में जादू था, जनता राग-रंग, उत्सव छोड़कर उनके धर्म-अध्यात्म के प्रवचन सुनने दौड़ पड़ती । कहां साधारण सा भिक्षु और कहां भारत सम्राट अशोक ! सम्राट के लिए यह एक विचित्र पहेली थी कि एक भिक्षु के पास जाने के लिए लोग अपना काम छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और सम्राट का नाम सुनते ही दहशत फैल जाती है । उस समय तक अशोक के लिए धर्म का कोई विशेष अर्थ न था ।
एक दिन सम्राट अशोक महाभिक्षु का प्रवचन सुनने पहुँच गये । भिक्षु मौद्गलायन का गरिमामंडित व्यक्तित्व किसी को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त था, सम्राट ने उन्हें भोजन का निमंत्रण दिया । शायद वे उनकी निष्ठा को परखने के साथ ही उनकी लोकप्रियता का कारण जानना चाहते थे ।
भोजन के बाद सम्राट ने उन्हें अपना महल घुमाया । एक से एक मूल्यवान वस्तुएं और बेशकीमती रत्नों के भंडार को दिखाते हुए कहा--- " ऐसे दुर्लभ रत्न भारत भर में कहीं न मिलेंगे । "
भिक्षु ने कहा--" तब तो इनसे राज्य को भारी आय होती होगी । " " आय ?" अशोक भिक्षु की नादानी पर मुस्कराया और कहा--- " इनकी सुरक्षा पर पर्याप्त व्यय करना पड़ता है । इन पत्थरों से कीमती पत्थर मैंने आपके राज्य में देखा है । आप भी मेरे साथ चलकर देखें । " अशोक ने वहां जाकर देखा तो बहुत झुंझलाया और कहा-- 'ये तो चक्की है । ' भिक्षु ने कहा--- " यह तुम्हारे सभी रत्नों से श्रेष्ठ है, इसकी सुरक्षा पर कुछ खर्च नहीं करना पड़ता और इससे वृद्धा के अन्धे पति और तीन बच्चों का पोषण होता है । "
अशोक को सूझ नहीं रहा था क्या उत्तर दे । भिक्षु ने कहा--- "राजन ! जीवन का रहस्य, त्याग और पुरुषार्थ है, संग्रह में इन दोनों की अवहेलना है । संग्रह का अर्थ है- स्वयं के ऊपर, नियंता के ऊपर और जिस समाज में रहते हैं उस पर चरम अविश्वास । जिसे लोक पर विश्वास नहीं लोक उसे सम्मान क्योँ देगा ? उसे अपना प्रिय क्योँ मानेगा ? और जिसे इन तीनों में से एक पर भी विश्वास है वह क्योँ संग्रह करेगा ?" सम्राट ने देखा भिक्षु की आँखों में तीनों विश्वास की गहरी चमक थी । उसे उसके फटे चीवर और उसे सुनने के लिए उमड़ती भीड़ का कारण ज्ञात हो रहा था । कहते है अगले दिन सम्राट ने अपनी संपति जनहित के कार्यों में समर्पित कर दी और वह ' देवानां प्रिय ' बना
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