ज्ञान की सार्थकता निरहंकारिता में है । ज्ञानी जब अहंकारी हो जाता है तब उसके अंत:करण से करुणा नष्ट हो जाती है । उस स्थिति में वह औरों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता, केवल मात्र दंभ प्रदर्शन कर सकता है, जिससे लोग प्रकाश लेने की अपेक्षा पतित होने लगते हैं ।
किसी को कहकर या उपदेशों द्वारा ही प्रभावित नहीं किया जा सकता । उसे आचरण की प्रेरणा देने के लिए स्वयं के कृतित्व द्वारा ही आदर्श उपस्थित करना होता है ।
एक बार युधिष्ठिर को अभिमान हो गया कि वे प्रतिदिन सोलह हजार ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं । भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें बहुत समझाया कि ब्राह्मणों के लिए भोजन व्यवस्था कर तुम पुण्य कार्य में संलग्न हो परंतु उसके लिए अभिमान नहीं करना चाहिए । भगवान युधिष्ठिर को लेकर महाराज बलि के पास पहुँचे और बलि को युधिष्ठिर का परिचय कराते हुए कहा --- " दैत्यराज ! ये हैं पांडवों में अग्रज महादानी युधिष्ठिर इनके दान से मृत्युलोक के प्राणी इस तरह उपकृत हो रहें हैं कि वे तुम्हारा स्मरण भी नहीं करते । । "
बलि ने कहा--- " मैंने स्मरण किये जाने जैसा कार्य भी क्या किया है, मैंने वामन को तीन पग जमीन देने का वचन दिया था वही पूरा किया । " उन्होंने भगवान से युधिष्ठिर की कोई पुण्य गाथा सुनाने को कहा । भगवान कृष्ण ने उनके जीवन का पूर्ण विवरण सुनाया और कहा कि ये अक्षय पात्र से प्रतिदिन सोलह हजार ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं ।
दानवराज ने कहा--- " आप इसे दान कहते हैं लेकिन यह तो महापाप है । स्पष्ट करते हुए महाबली ने कहा -- केवल अपने दान के दंभ को पूरा करने के लिए ब्राह्मणों को आलसी बनाना पाप ही है ।
मेरे राज्य में तो याचक को नित्य भोजन की सुविधा दी जाये, तो भी वह स्वीकार नहीं करेगा । "
युधिष्ठिर का अभिमान चूर-चूर हो गया और अब वह विनम्रतापूर्वक पुण्य-पुरुषार्थ में जुट गये ।
किसी को कहकर या उपदेशों द्वारा ही प्रभावित नहीं किया जा सकता । उसे आचरण की प्रेरणा देने के लिए स्वयं के कृतित्व द्वारा ही आदर्श उपस्थित करना होता है ।
एक बार युधिष्ठिर को अभिमान हो गया कि वे प्रतिदिन सोलह हजार ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं । भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें बहुत समझाया कि ब्राह्मणों के लिए भोजन व्यवस्था कर तुम पुण्य कार्य में संलग्न हो परंतु उसके लिए अभिमान नहीं करना चाहिए । भगवान युधिष्ठिर को लेकर महाराज बलि के पास पहुँचे और बलि को युधिष्ठिर का परिचय कराते हुए कहा --- " दैत्यराज ! ये हैं पांडवों में अग्रज महादानी युधिष्ठिर इनके दान से मृत्युलोक के प्राणी इस तरह उपकृत हो रहें हैं कि वे तुम्हारा स्मरण भी नहीं करते । । "
बलि ने कहा--- " मैंने स्मरण किये जाने जैसा कार्य भी क्या किया है, मैंने वामन को तीन पग जमीन देने का वचन दिया था वही पूरा किया । " उन्होंने भगवान से युधिष्ठिर की कोई पुण्य गाथा सुनाने को कहा । भगवान कृष्ण ने उनके जीवन का पूर्ण विवरण सुनाया और कहा कि ये अक्षय पात्र से प्रतिदिन सोलह हजार ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं ।
दानवराज ने कहा--- " आप इसे दान कहते हैं लेकिन यह तो महापाप है । स्पष्ट करते हुए महाबली ने कहा -- केवल अपने दान के दंभ को पूरा करने के लिए ब्राह्मणों को आलसी बनाना पाप ही है ।
मेरे राज्य में तो याचक को नित्य भोजन की सुविधा दी जाये, तो भी वह स्वीकार नहीं करेगा । "
युधिष्ठिर का अभिमान चूर-चूर हो गया और अब वह विनम्रतापूर्वक पुण्य-पुरुषार्थ में जुट गये ।
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