' अपने जीवन में एक साथ अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान , प्रख्यात पत्रकार , सजग समाजसेवी , जागरूक शिक्षाशास्त्री व आदर्शोन्मुख राजनीतिज्ञ के रूप में अपनी सफलता की यश सुरभि बिखेरते हुए वे जिस ढंग से जिये वह भारत की नयी पीढ़ी के लिए आदर्श है । '
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक की बात है स्कूल में एक हेडमास्टर ने कई विद्दार्थियों को बिना किसी बात के अर्थदंड की सजा दी । यह बात एक अन्याय विरोधी छात्र को सहन नहीं हुई , गुरुजनो का आदर करना ठीक है पर उनके अन्याय को शिरोधार्य करना ठीक नहीं । वह कार्यालय में जाकर उनसे भिड़ गये , परिणाम यह हुआ कि उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया । बचपन से ही अन्याय-विरोधी के रूप में प्रख्यात युवक आगे चलकर भारत -विख्यात न्यायविद - डॉ.सच्चिदानंद सिन्हा थे । पटना कालेज में पढ़ते समय ही उनकी इच्छा इंग्लैंड जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने की थी किन्तु समाज की रूढ़िवादिता की वजह से पिता ने जाने की अनुमति नहीं दी । ज्ञान की लालसा थी अत: अपना कश्मीरी शाल , घड़ी व पुस्तकें बेचकर जो रकम मिली उसी के सहारे एक स्टीमर में बैठकर चल दिये । यह रकम तो अदन तक की यात्रा में समाप्त हो गई , उन्होंने स्वयं मेहनत की फिर पिता ने उनकी पढ़ाई का खर्च वहन किया । इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे । उनसे एक परिचित अंग्रेज ने पूछा --- मि. सिन्हा आप भारत के किस प्रान्त के रहने वाले हैं । उन्होंने उत्तर दिया --' बिहार के ' । अंग्रेज सज्जन ने कहा --' पर बिहार तो भारत के मानचित्र में है ही नहीं '
उन दिनों बिहार व उड़ीसा बंगाल के अंतर्गत आते थे । डॉ. सिन्हा ने कहा --- 'कोई बात नहीं अब होगा जरूर । ' बिहार उन दिनों भारत के नक्शे में भले ही न हो उनके मस्तिष्क में था । बिहार को स्वतंत्र प्रान्त बनाने का श्रेय उन्ही को है ।
डॉ. सिन्हा पहले भारतीय अर्थ -सचिव हुए , उन्होंने इस काल में भारतीय जेलों में अविस्मरणीय सुधार किये । पटना विश्वविद्दालय के वाइसचांसलर के रूप में उन्होंने शिक्षा जगत में अपना स्थायी नाम किया , वे पूरी तरह से कर्मयोगी थे । इस नये विश्वविद्दालय को समर्थ और प्रख्यात बनाने के लिए उन्होंने जो अथक श्रम किया वह शिक्षाशास्त्रियों के लिए अनुकरणीय है । ' हिंदुस्तान रिव्यु ' पत्र का संपादन वे जिस कुशलता से करते थे उसे देखकर ब्रिटिश पत्रकार भी दंग रह जाते थे । उनकी लेखनी में जादू भरा रहता था । डॉ. सिन्हा मनुष्यों के पारखी थे , उन्होंने ही भारत को सी. वाई.चिंतामणि जैसा विख्यात पत्रकार दिया । सत्साहित्य से उन्हें लगाव था इसका प्रमाण है --- सिन्हा पुस्तकालय ' जिसमे उनकी पढ़ी हुई व खरीदी हुई 15000 से अधिक पुस्तकें हैं । अपनी बौद्धिक विरासत के रूप में वे समाज को यह अमर अनुदान दे गये ।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक की बात है स्कूल में एक हेडमास्टर ने कई विद्दार्थियों को बिना किसी बात के अर्थदंड की सजा दी । यह बात एक अन्याय विरोधी छात्र को सहन नहीं हुई , गुरुजनो का आदर करना ठीक है पर उनके अन्याय को शिरोधार्य करना ठीक नहीं । वह कार्यालय में जाकर उनसे भिड़ गये , परिणाम यह हुआ कि उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया । बचपन से ही अन्याय-विरोधी के रूप में प्रख्यात युवक आगे चलकर भारत -विख्यात न्यायविद - डॉ.सच्चिदानंद सिन्हा थे । पटना कालेज में पढ़ते समय ही उनकी इच्छा इंग्लैंड जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने की थी किन्तु समाज की रूढ़िवादिता की वजह से पिता ने जाने की अनुमति नहीं दी । ज्ञान की लालसा थी अत: अपना कश्मीरी शाल , घड़ी व पुस्तकें बेचकर जो रकम मिली उसी के सहारे एक स्टीमर में बैठकर चल दिये । यह रकम तो अदन तक की यात्रा में समाप्त हो गई , उन्होंने स्वयं मेहनत की फिर पिता ने उनकी पढ़ाई का खर्च वहन किया । इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे । उनसे एक परिचित अंग्रेज ने पूछा --- मि. सिन्हा आप भारत के किस प्रान्त के रहने वाले हैं । उन्होंने उत्तर दिया --' बिहार के ' । अंग्रेज सज्जन ने कहा --' पर बिहार तो भारत के मानचित्र में है ही नहीं '
उन दिनों बिहार व उड़ीसा बंगाल के अंतर्गत आते थे । डॉ. सिन्हा ने कहा --- 'कोई बात नहीं अब होगा जरूर । ' बिहार उन दिनों भारत के नक्शे में भले ही न हो उनके मस्तिष्क में था । बिहार को स्वतंत्र प्रान्त बनाने का श्रेय उन्ही को है ।
डॉ. सिन्हा पहले भारतीय अर्थ -सचिव हुए , उन्होंने इस काल में भारतीय जेलों में अविस्मरणीय सुधार किये । पटना विश्वविद्दालय के वाइसचांसलर के रूप में उन्होंने शिक्षा जगत में अपना स्थायी नाम किया , वे पूरी तरह से कर्मयोगी थे । इस नये विश्वविद्दालय को समर्थ और प्रख्यात बनाने के लिए उन्होंने जो अथक श्रम किया वह शिक्षाशास्त्रियों के लिए अनुकरणीय है । ' हिंदुस्तान रिव्यु ' पत्र का संपादन वे जिस कुशलता से करते थे उसे देखकर ब्रिटिश पत्रकार भी दंग रह जाते थे । उनकी लेखनी में जादू भरा रहता था । डॉ. सिन्हा मनुष्यों के पारखी थे , उन्होंने ही भारत को सी. वाई.चिंतामणि जैसा विख्यात पत्रकार दिया । सत्साहित्य से उन्हें लगाव था इसका प्रमाण है --- सिन्हा पुस्तकालय ' जिसमे उनकी पढ़ी हुई व खरीदी हुई 15000 से अधिक पुस्तकें हैं । अपनी बौद्धिक विरासत के रूप में वे समाज को यह अमर अनुदान दे गये ।
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