उनके जीवन के बारे में उनके ये शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं---- " पढ़ने और लिखने को इतना पड़ा है कि दस जन्म लूँ तब भी पूरा न हो । जीवन का क्या भरोसा ? काम बहुत है और समय बहुत कम । जीवन तो जायेगा ही पर यह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये । " व्यक्ति जीवन में कितना कुछ ज्ञानार्जन कर सकता है ! इस तथ्य के वे सटीक उदाहरण थे । श्री गोपालप्रसाद व्यास ने उनके बारे में लिखा है---- " संसार की शायद ही कोई मुख्य भाषा ऐसी हो जिसका ज्ञान वासुदेव जी को न हो और जिसकी लिपि , उत्पति और विकास के संबंध में उनकी जानकारी न हो । भारत की किसी भी भाषा का शायद ही कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ ऐसा बचा हो जो वासुदेव जी ने न पढ़ा हो । भारत -विद्दा का शायद ही कोई प्रश्न ऐसा हो जिसका उत्तर उनके पास न हो । ज्ञान के प्रति जिज्ञासा उन्हें अत्यंत प्रिय थी । लोग उनसे भांति -भांति के प्रश्न पूछने आया करते थे । "
उनसे एक प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया ---- " वासुदेव जी ! यह ' पागल ' शब्द कैसे बना है ? "
वे लपक कर अपने आसन से उठे और भीतर से एक कोष निकाल लाये । कहने लगे --- " इसे रूस के जार ने पहले -पहल छपवाया था । सबसे पहले ' पागल ' शब्द का प्रयोग इसी कोष में हुआ । " ऐसा विलक्षण था उनका ज्ञान और विलक्षण थी उनकी ज्ञान साधना ।
उन्होंने पाणिनि के महान ग्रन्थ ' अष्टाध्यायी ' पर बारह वर्ष तक शोध कार्य किया और 1941 में उनका ग्रन्थ ' इंडिया एज नोन टू पाणिनि ' पूर्ण हुआ और उन्हें पी. एच. डी. की उपाधि मिली । इसी ग्रन्थ के परिवर्द्धित संस्करण पर उन्हें डी. लिट. की उपाधि मिली ।
उन्होंने विद्दा का अखण्ड तप किया । एक लकड़ी का तख़्त , सामने लिखने की एक छोटी सी चौकी , उस चौकी पर भगवान विष्णु की छोटी -सी प्रतिमा , कमरे में ढेरों पुस्तकें और लिखने -पढ़ने मे डूबे हुए वासुदेवशरण जी , एक योगी कि तरह पद्मासन लगाकर वे घण्टों कार्य किया करते थे ।
उन्होंने संस्कृत -साहित्य की सहायता से कला और पुरातत्व संबंधी सहस्रों शब्दों का उद्धार किया । उन्होंने जब दीर्घतमस के अस्थवामीय सूत्र की व्याख्या लिखी तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि वेद -विद्दा सृष्टि -विद्दा है , यही सनातनी योग विद्दा या प्राण -विद्दा है ।
वासुदेवशरण जी साहित्य और कला के रसमय व्याख्याता थे । नीरस से नीरस विषय पर वे जिस सरसतापूर्वक पठन -पाठन और चिंतन कर सकते थे वह अपूर्व था । इतने बड़े विद्वान और कला -मर्मज्ञ होते हुये भी उन्हें अपनी विद्वता का तनिक भी गर्व नहीं था । उनकी दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हुईं , जिनमे अपरिमित ज्ञान भण्डार हैं लेकिन उनमें उन्होंने कहीं भी अपने बारे में कोई जानकारी नहीं दी और न किसी में अपना चित्र छपाया है । उन जैसे व्यक्तित्व राष्ट्र की सबसे बड़ी सम्पदा होते हैं ।
उनसे एक प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया ---- " वासुदेव जी ! यह ' पागल ' शब्द कैसे बना है ? "
वे लपक कर अपने आसन से उठे और भीतर से एक कोष निकाल लाये । कहने लगे --- " इसे रूस के जार ने पहले -पहल छपवाया था । सबसे पहले ' पागल ' शब्द का प्रयोग इसी कोष में हुआ । " ऐसा विलक्षण था उनका ज्ञान और विलक्षण थी उनकी ज्ञान साधना ।
उन्होंने पाणिनि के महान ग्रन्थ ' अष्टाध्यायी ' पर बारह वर्ष तक शोध कार्य किया और 1941 में उनका ग्रन्थ ' इंडिया एज नोन टू पाणिनि ' पूर्ण हुआ और उन्हें पी. एच. डी. की उपाधि मिली । इसी ग्रन्थ के परिवर्द्धित संस्करण पर उन्हें डी. लिट. की उपाधि मिली ।
उन्होंने विद्दा का अखण्ड तप किया । एक लकड़ी का तख़्त , सामने लिखने की एक छोटी सी चौकी , उस चौकी पर भगवान विष्णु की छोटी -सी प्रतिमा , कमरे में ढेरों पुस्तकें और लिखने -पढ़ने मे डूबे हुए वासुदेवशरण जी , एक योगी कि तरह पद्मासन लगाकर वे घण्टों कार्य किया करते थे ।
उन्होंने संस्कृत -साहित्य की सहायता से कला और पुरातत्व संबंधी सहस्रों शब्दों का उद्धार किया । उन्होंने जब दीर्घतमस के अस्थवामीय सूत्र की व्याख्या लिखी तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि वेद -विद्दा सृष्टि -विद्दा है , यही सनातनी योग विद्दा या प्राण -विद्दा है ।
वासुदेवशरण जी साहित्य और कला के रसमय व्याख्याता थे । नीरस से नीरस विषय पर वे जिस सरसतापूर्वक पठन -पाठन और चिंतन कर सकते थे वह अपूर्व था । इतने बड़े विद्वान और कला -मर्मज्ञ होते हुये भी उन्हें अपनी विद्वता का तनिक भी गर्व नहीं था । उनकी दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हुईं , जिनमे अपरिमित ज्ञान भण्डार हैं लेकिन उनमें उन्होंने कहीं भी अपने बारे में कोई जानकारी नहीं दी और न किसी में अपना चित्र छपाया है । उन जैसे व्यक्तित्व राष्ट्र की सबसे बड़ी सम्पदा होते हैं ।
No comments:
Post a Comment