उन्होंने अपना तन-मन-धन सर्वस्व मातृभूमि की सेवा और उसे ऊँचा उठाने में लगा दिया । जीवन भर अध्ययन , मनन , खोज , शोध करके जो कुछ प्राप्त किया वह सब कुछ भारतीय राष्ट्र और समाज के उत्थान में ही लगाया । अपने समस्त अध्ययन के रूप में जो ग्रन्थ --- ' हिन्दू रसायन शास्त्र का इतिहास ' उन्होंने लिखा वह भी इस देश के प्राचीन वैज्ञानिक -सिद्धांतों की कीर्ति बढ़ाने वाला है । यह ग्रन्थ अपने क्षेत्र में अपूर्व और स्थाई महत्व रखने वाला माना जाता है और 100 वर्ष पहले लिखा जाने पर भी आज तक भारत ही नहीं विदेशों के साइन्स कॉलेजों में पाठ्य -पुस्तक की तरह काम में लाया जाता है ।
इंग्लैंड से रसायन विज्ञान की उच्च परीक्षा पास कर भारत आये तो प्रेसीडेन्सी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर की जगह मिली और वेतन 250 रुपया मासिक था , वे जानते थे कि इसी पद पर अंग्रेज शिक्षक को एक हजार से भी अधिक वेतन दिया जाता है , जब उन्होंने इसकी शिकायत शिक्षा विभाग में की तो उनसे कहा गया कि अपनी योग्यता को इतनी अधिक समझते हैं तो कहीं भी वैसा कार्य करके दिखा सकते हैं । उपयुक्त अवसर न देखकर उस समय प्रफुल्ल बाबू यह अपमान सह गये, पर अपने मन में निश्चय कर लिया कि अवसर पाते ही अपनी योग्यता को प्रदर्शित कर इस गर्वोक्ति का उत्तर अवश्य देंगे |
कॉलेज की नौकरी के साथ-साथ वे विज्ञान संबंधी नई-नई खोजें करते रहे और अपनी योग्यता और परिश्रमशीलता से उनका वेतन एक हजार मासिक के लगभग हो गया, वैज्ञानिक आविष्कारों से भी काफी आय हो जाती थी, पर वे उसमे से अपने लिए केवल 40 रुपया मासिक खर्च करते थे शेष जरुरतमंदों को दान कर देते थे, जिनमे से अधिकांश विज्ञान के छात्र ही होते थे | उन्होंने विवाह नहीं किया था, प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे , पर बहुत सामान्य ढंग से जीवन निर्वाह करते थे |
1906 में उन्होंने ' बंगाल केमिकल एंड फर्मास्यूटिकल व र्क्स ' की स्थापना की | इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि असमर्थ छात्र उस कारखाने में काम करके जीवन निर्वाह में सहायता प्राप्त कर सकें | इसके द्वारा अनेक युवक विद्दार्थियों को कॉलेज में अध्ययन करने का साधन प्राप्त हो गया, जिनमे से अनेक आगे चलकर प्रसिद्ध वैज्ञानिक बने | उनके द्वारा आविष्कृत प्रभावशाली दवाओं और उनके सद्व्यवहार से 800 रूपये की पूंजी वाला कारखाना एक बहुत बड़े कारखाने में परिणत हो गया |
वे दानवीर थे पर अभिमान उन्हें छू भी नही गया था | कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्होंने चार वर्ष तक कार्य किया और अपना समस्त वेतन विश्वविद्यालय को ही विज्ञान की उन्नति के लिए दान कर दिया |
इंग्लैंड से रसायन विज्ञान की उच्च परीक्षा पास कर भारत आये तो प्रेसीडेन्सी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर की जगह मिली और वेतन 250 रुपया मासिक था , वे जानते थे कि इसी पद पर अंग्रेज शिक्षक को एक हजार से भी अधिक वेतन दिया जाता है , जब उन्होंने इसकी शिकायत शिक्षा विभाग में की तो उनसे कहा गया कि अपनी योग्यता को इतनी अधिक समझते हैं तो कहीं भी वैसा कार्य करके दिखा सकते हैं । उपयुक्त अवसर न देखकर उस समय प्रफुल्ल बाबू यह अपमान सह गये, पर अपने मन में निश्चय कर लिया कि अवसर पाते ही अपनी योग्यता को प्रदर्शित कर इस गर्वोक्ति का उत्तर अवश्य देंगे |
कॉलेज की नौकरी के साथ-साथ वे विज्ञान संबंधी नई-नई खोजें करते रहे और अपनी योग्यता और परिश्रमशीलता से उनका वेतन एक हजार मासिक के लगभग हो गया, वैज्ञानिक आविष्कारों से भी काफी आय हो जाती थी, पर वे उसमे से अपने लिए केवल 40 रुपया मासिक खर्च करते थे शेष जरुरतमंदों को दान कर देते थे, जिनमे से अधिकांश विज्ञान के छात्र ही होते थे | उन्होंने विवाह नहीं किया था, प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे , पर बहुत सामान्य ढंग से जीवन निर्वाह करते थे |
1906 में उन्होंने ' बंगाल केमिकल एंड फर्मास्यूटिकल व र्क्स ' की स्थापना की | इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि असमर्थ छात्र उस कारखाने में काम करके जीवन निर्वाह में सहायता प्राप्त कर सकें | इसके द्वारा अनेक युवक विद्दार्थियों को कॉलेज में अध्ययन करने का साधन प्राप्त हो गया, जिनमे से अनेक आगे चलकर प्रसिद्ध वैज्ञानिक बने | उनके द्वारा आविष्कृत प्रभावशाली दवाओं और उनके सद्व्यवहार से 800 रूपये की पूंजी वाला कारखाना एक बहुत बड़े कारखाने में परिणत हो गया |
वे दानवीर थे पर अभिमान उन्हें छू भी नही गया था | कलकत्ता विश्वविद्यालय में उन्होंने चार वर्ष तक कार्य किया और अपना समस्त वेतन विश्वविद्यालय को ही विज्ञान की उन्नति के लिए दान कर दिया |
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