' उनसे बड़े धनवान देश में हजारों पड़े हैं, पर जिनका धन उनकी तरह जरुरतमंदों के काम आया और अनगिनत लोगों का सहारा बना, वैसे महापुरुष थोड़े ही मिल सकेंगे । एक दिन वह था जब मैट्रिक पास कर लेने पर वे अकस्मात प्रधान इंजीनियर की कुर्सी पर जा बैठे थे । उस पर से उठा दिये जाने के कारण उन्होंने उससे भी बड़ा इंजीनियर बनने की प्रतिज्ञा की और कुछ समय में उसे पूरा करके दिखा दिया । पर वे केवल मकानों, सड़कों और पुलों के बनाने वाले इंजीनियर ही बनकर नहीं रह गये वरन उन्होंने इससे बहुत आगे बढ़कर लाखों लोगों के टूटे -फूटे शरीरों और मन की रक्षा करने और उन्हें उपयोगी मार्ग पर लाने का दिव्य कर्म भी पूरा किया ।
श्री गंगाराम जी का जन्म 1851 में हुआ । रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से 1873 में अन्तिम परीक्षा पास करके वे सरकारी विभाग में इंजीनियर हो गये । पटियाला रियासत से उन्हें बुलावा आया ,उन्होंने नगर को स्वच्छ, सुन्दर बनाने की कई योजनाएं कार्यान्वित की । जिस कार्य के लिए श्री गंगाराम का नाम याद किया जाता है, वह है---- निराश्रय स्त्रियों तथा बेकार युवकों के लिए उनका सेवा कार्य------- भारत में उस समय बाल - विधवाओं की बड़ी भीषण समस्या थी । किसी भी अन्य देश के लोग बाल-विधवा शब्द से परिचित नहीं है किन्तु भारत में 1911 की जनसँख्या रिपोर्ट के अनुसार दो करोड़ साठ लाख विधवाएं थीं जिनमे से पन्द्रह वर्ष से कम आयु की पच्चीस लाख विधवाएं थीं, उन्हें तिरस्कृत किया जाता था और लौकिक वातावरण में रहकर भी सन्यासिनी का जीवन बिताने को विवश किया जाता था ।
अल्पायु विधवाओं की शोचनीय दशा का जिक्र आते ही उनकी आँखे भर आती थीं | 1914 में उन्होंने' विधवा विवाह परिषद ' की स्थापना की और उसके कार्य संचालन के लिए गंगाराम जी ने ग्वालमंडी (लाहौर) स्थित अपनी एक इमारत दे दी । धीरे-धीरे इस संस्था का कार्य चारों तरफ फ़ैल गया, उस समय देश में 425 नगरों में सभा की शाखाएं तेजी से काम कर रहीं थीं । 1932 में इस संस्था द्वारा 5493 विधवा विवाह कराये , यह संख्या अठारह वर्षों में बढ़कर 39460 हो गई थी । विधवाओं के यंत्रणामय जीवन में श्री गंगाराम ने सुख का सम्मिश्रण कर दिया ।
अब उनके पास सहायता के लिए अनेक ऐसी विधवाओं के पत्र आये जिनकी आयु अधिक हो गई थी और कुछ कारणों से उनका विवाह होना कठिन था, उनका जीवन बड़ा कष्टपूर्ण व अपमानजनक था । श्री गंगाराम ने इस समस्या पर विचार किया कि ऐसी स्त्रियों को स्वावलंबी बनाया जाये, जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जातीं तब तक उनकी कठिनाइयों का अंत नहीं हो सकता । उन्होंने पंजाब सरकार के सामने एक प्रस्ताव रखा कि यदि सरकार उनके प्रस्तावित ' हिन्दू विधवाश्रम ' को नियमित आर्थिक सहायता देना स्वीकार करे तो वे उसके लिए अपनी ढाई लाख रूपये की एक इमारत देने को तैयार हैं । उनकी योजना थी कि आश्रम में विधवाओं को पढ़ाकर अध्यापिका बना दिया जाये और दूसरी योजना थी कि स्त्रियों को गृह-उद्दोगों की शिक्षा देकर ' हस्तकला की शिक्षिका '
बना दिया जाये । जब सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया तो 1921 में पंजाब के गवर्नर सर एडवर्ड मैकलेगन ने आश्रम का उद्घाटन किया ।
इसके बाद उन्होंने ' लेडी मेनयार्ड इंडस्ट्रियल स्कूल फॉर हिन्दू एंड सिख वीमन ' की स्थापना की और उसके लिए अपनी एक इमारत दान में दे दी , जिसकी कीमत एक लाख रुपया थी । इसकी व्यवस्था और व्यय का भार पंजाब के ' डाइरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज ' ने लिया । इस संस्था में स्त्रियों को सिलाई , बुनाई , कढ़ाई , तिल्ले और गोटे का काम तथा कई अन्य हस्तकलाओं की शिक्षा दी जाती थी , इसमें संगीत शिक्षा का भी प्रबंध था । शिक्षा समाप्त हो जाने पर डाइरेक्टर द्वारा प्रमाण पत्र दिये जाते थे । स्कूल में शिक्षा निःशु ल्क थी और सब सामग्री भी बिना किसी मूल्य के मिलती थी । उन्होंने यह भी प्रबंध किया कि यहां की बनाई वस्तुओं को दुकान में बेचकर लाभ उनके हिसाब में जमा कर दिया जाता था । इस संस्था में शिक्षा प्राप्त अनेक महिलाएं आगे जाकर अच्छी नौकरी पाने में सफल हो सकीं । ऐसी छोटी-बड़ी कई योजनाएं बनाकर उन्होंने हजारों अभागिनी स्त्रियों के जीवन की काया पलट कर दी और उनके जन्म को सार्थक बना दिया ।
अनेक अवसरों पर यह प्रकट हुआ कि विधवाएं उनमे देवता के समान भक्ति रखती हैं ।
श्री गंगाराम ने बेकार और निराश्रित लोगों को किसी जीवन निर्वाह योग्य रोजगार में लगाने की इतनी योजनायें प्रचलित कीं कि अनेक लोग भगवान से यही प्रार्थना करने लगे कि वह उनको दीर्घ जीवन दे , जिससे वह संकटग्रस्त नर -नारियों की सहायता करते रहें ।
10 जनवरी 1927 को लन्दन में उनका देहावसान हुआ । जिस समय उनकी चिता-भस्म हरिद्वार में जुलूस के रूप में ले जायी जा रही थी तो हजारों स्त्रियाँ और विधवाएं रोती-बिलखती भस्म की पालकी पर फूल बरसा रहीं थीं और सहस्त्रों कंठों से ' गरीबों के वली की जय ' ' विधवाओं के सहारे की जय '
' पंजाबी हातिमताई की जय ' आदि के नारों से समस्त वातावरण गूंज रहा था ।
श्री गंगाराम जी का जन्म 1851 में हुआ । रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से 1873 में अन्तिम परीक्षा पास करके वे सरकारी विभाग में इंजीनियर हो गये । पटियाला रियासत से उन्हें बुलावा आया ,उन्होंने नगर को स्वच्छ, सुन्दर बनाने की कई योजनाएं कार्यान्वित की । जिस कार्य के लिए श्री गंगाराम का नाम याद किया जाता है, वह है---- निराश्रय स्त्रियों तथा बेकार युवकों के लिए उनका सेवा कार्य------- भारत में उस समय बाल - विधवाओं की बड़ी भीषण समस्या थी । किसी भी अन्य देश के लोग बाल-विधवा शब्द से परिचित नहीं है किन्तु भारत में 1911 की जनसँख्या रिपोर्ट के अनुसार दो करोड़ साठ लाख विधवाएं थीं जिनमे से पन्द्रह वर्ष से कम आयु की पच्चीस लाख विधवाएं थीं, उन्हें तिरस्कृत किया जाता था और लौकिक वातावरण में रहकर भी सन्यासिनी का जीवन बिताने को विवश किया जाता था ।
अल्पायु विधवाओं की शोचनीय दशा का जिक्र आते ही उनकी आँखे भर आती थीं | 1914 में उन्होंने' विधवा विवाह परिषद ' की स्थापना की और उसके कार्य संचालन के लिए गंगाराम जी ने ग्वालमंडी (लाहौर) स्थित अपनी एक इमारत दे दी । धीरे-धीरे इस संस्था का कार्य चारों तरफ फ़ैल गया, उस समय देश में 425 नगरों में सभा की शाखाएं तेजी से काम कर रहीं थीं । 1932 में इस संस्था द्वारा 5493 विधवा विवाह कराये , यह संख्या अठारह वर्षों में बढ़कर 39460 हो गई थी । विधवाओं के यंत्रणामय जीवन में श्री गंगाराम ने सुख का सम्मिश्रण कर दिया ।
अब उनके पास सहायता के लिए अनेक ऐसी विधवाओं के पत्र आये जिनकी आयु अधिक हो गई थी और कुछ कारणों से उनका विवाह होना कठिन था, उनका जीवन बड़ा कष्टपूर्ण व अपमानजनक था । श्री गंगाराम ने इस समस्या पर विचार किया कि ऐसी स्त्रियों को स्वावलंबी बनाया जाये, जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जातीं तब तक उनकी कठिनाइयों का अंत नहीं हो सकता । उन्होंने पंजाब सरकार के सामने एक प्रस्ताव रखा कि यदि सरकार उनके प्रस्तावित ' हिन्दू विधवाश्रम ' को नियमित आर्थिक सहायता देना स्वीकार करे तो वे उसके लिए अपनी ढाई लाख रूपये की एक इमारत देने को तैयार हैं । उनकी योजना थी कि आश्रम में विधवाओं को पढ़ाकर अध्यापिका बना दिया जाये और दूसरी योजना थी कि स्त्रियों को गृह-उद्दोगों की शिक्षा देकर ' हस्तकला की शिक्षिका '
बना दिया जाये । जब सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया तो 1921 में पंजाब के गवर्नर सर एडवर्ड मैकलेगन ने आश्रम का उद्घाटन किया ।
इसके बाद उन्होंने ' लेडी मेनयार्ड इंडस्ट्रियल स्कूल फॉर हिन्दू एंड सिख वीमन ' की स्थापना की और उसके लिए अपनी एक इमारत दान में दे दी , जिसकी कीमत एक लाख रुपया थी । इसकी व्यवस्था और व्यय का भार पंजाब के ' डाइरेक्टर ऑफ इंडस्ट्रीज ' ने लिया । इस संस्था में स्त्रियों को सिलाई , बुनाई , कढ़ाई , तिल्ले और गोटे का काम तथा कई अन्य हस्तकलाओं की शिक्षा दी जाती थी , इसमें संगीत शिक्षा का भी प्रबंध था । शिक्षा समाप्त हो जाने पर डाइरेक्टर द्वारा प्रमाण पत्र दिये जाते थे । स्कूल में शिक्षा निःशु ल्क थी और सब सामग्री भी बिना किसी मूल्य के मिलती थी । उन्होंने यह भी प्रबंध किया कि यहां की बनाई वस्तुओं को दुकान में बेचकर लाभ उनके हिसाब में जमा कर दिया जाता था । इस संस्था में शिक्षा प्राप्त अनेक महिलाएं आगे जाकर अच्छी नौकरी पाने में सफल हो सकीं । ऐसी छोटी-बड़ी कई योजनाएं बनाकर उन्होंने हजारों अभागिनी स्त्रियों के जीवन की काया पलट कर दी और उनके जन्म को सार्थक बना दिया ।
अनेक अवसरों पर यह प्रकट हुआ कि विधवाएं उनमे देवता के समान भक्ति रखती हैं ।
श्री गंगाराम ने बेकार और निराश्रित लोगों को किसी जीवन निर्वाह योग्य रोजगार में लगाने की इतनी योजनायें प्रचलित कीं कि अनेक लोग भगवान से यही प्रार्थना करने लगे कि वह उनको दीर्घ जीवन दे , जिससे वह संकटग्रस्त नर -नारियों की सहायता करते रहें ।
10 जनवरी 1927 को लन्दन में उनका देहावसान हुआ । जिस समय उनकी चिता-भस्म हरिद्वार में जुलूस के रूप में ले जायी जा रही थी तो हजारों स्त्रियाँ और विधवाएं रोती-बिलखती भस्म की पालकी पर फूल बरसा रहीं थीं और सहस्त्रों कंठों से ' गरीबों के वली की जय ' ' विधवाओं के सहारे की जय '
' पंजाबी हातिमताई की जय ' आदि के नारों से समस्त वातावरण गूंज रहा था ।
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