एक स्थितप्रज्ञ की भाँति जीवन के उतार -चढ़ावों से तटस्थ रहकर देश , समाज और परिवार की निःस्वार्थ सेवा में लगे रहने वाले रामवृक्ष बेनीपुरी गरीब घर में पैदा होकर भी किसी प्रकार दुःखी व उदास नहीं हुए । गरीबी को वरदान मानकर वे अपने पुरुषार्थ के बल पर जीवन की क्षेत्र में ही नहीं हिन्दी -साहित्य के क्षेत्र में भी अपने पाँव जमाने में सफल हुए । जब वे स्वयं साहित्य के क्षेत्र में नहीं जम पाये थे तब भी उन्हें जाने-माने लेखकों से कोई शिकायत नहीं थी और सिद्ध लेखक हो जाने पर भी वे युवा लेखकों से कटे नहीं ।
उनका हाथ नये साहित्य-सेवियों की पीठ थपथपाता रहा था । हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि रामधारीसिंह दिनकर बड़े गर्व और श्रद्धा के साथ कह्ते थे---- " बेनीपुरीजी ने मुझे प्रकाशित किया है | " कलम के सिपाही तो वे थे ही पर प्रत्यक्ष रुप से स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने वाले सेनानी भी थे । गाँधीजी के असहयोग -आंदोलन में उन्होंने पूरी तरह भाग लिया था । साहित्य ओर पत्रकारिता के माध्यम से वे जन -जागरण किया करते थे । स्व. मैथिलीशरण गुप्त उनकी उनकी लेखनी के लिए कहा करते थे --- " वह लेखनी नहीं जादू की छड़ी है जिससे वह पाठकों पर मोहन मंत्र फूँक देते हैं । बेजोड़ शब्द शिल्पी हैं बेनीपुरी जी ।" उनकी कृति ' अम्बपाली ' बहुत लोकप्रिय हुई थी । उनका जीवन भौतिक सुख सम्रद्धि और उच्चतम आध्यात्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों का समन्वय था, ये दोनों उनके लिए एक दूसरे के पूरक थे । अपने समय के मूर्धन्य साहित्यकार होते हुए भी आलोचकों और समालोचकों की प्रशंसा करते रहते थे ।
उनका हाथ नये साहित्य-सेवियों की पीठ थपथपाता रहा था । हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि रामधारीसिंह दिनकर बड़े गर्व और श्रद्धा के साथ कह्ते थे---- " बेनीपुरीजी ने मुझे प्रकाशित किया है | " कलम के सिपाही तो वे थे ही पर प्रत्यक्ष रुप से स्वतंत्रता संग्राम में लड़ने वाले सेनानी भी थे । गाँधीजी के असहयोग -आंदोलन में उन्होंने पूरी तरह भाग लिया था । साहित्य ओर पत्रकारिता के माध्यम से वे जन -जागरण किया करते थे । स्व. मैथिलीशरण गुप्त उनकी उनकी लेखनी के लिए कहा करते थे --- " वह लेखनी नहीं जादू की छड़ी है जिससे वह पाठकों पर मोहन मंत्र फूँक देते हैं । बेजोड़ शब्द शिल्पी हैं बेनीपुरी जी ।" उनकी कृति ' अम्बपाली ' बहुत लोकप्रिय हुई थी । उनका जीवन भौतिक सुख सम्रद्धि और उच्चतम आध्यात्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों का समन्वय था, ये दोनों उनके लिए एक दूसरे के पूरक थे । अपने समय के मूर्धन्य साहित्यकार होते हुए भी आलोचकों और समालोचकों की प्रशंसा करते रहते थे ।
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