श्री महावीर प्रसाद द्धिवेदी देश के उन साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने जीवन भर व्यक्तिगत सुख सुविधाओं की उपेक्षा कर मातृभाषा हिन्दी की सेवा की ।
युवावस्था के प्रारंभिक दिनों में इन्होने एक सस्ता साहित्य लिखा जिसे जन समुदाय ने पसंद किया , बिक्री भी खूब हुई , पर्याप्त धन भी मिला । मित्र मंडली ने बहुत आग्रह किया तो दो पाण्डुलिपियां और लिख लीं । घर की सफाई-सुव्यवस्था में उनकी पत्नी ने ये पाण्डुलिपियां देखी तो अपने पति की करतूत पर तिलमिला गईं । उन्होंने पति को फटकार लगाई -----
" जनमानस में कुत्सित -भावों को पनपाने में जो सस्ती लोकप्रियता और धन मिलता है उस पर धिक्कार है । ऐसे साहित्यकार से तो गँवार होना अच्छा । भगवान ने अकल दी है , कलम में ताकत दी है तो सामाजिक समस्याओं के निदान क्यों नहीं सुझाते ? जनरुचि को परिमार्जित कर आदर्शों की ओर मोड़ने के लिए क्यों नहीं लिखते ? "
पत्नी की फटकार से पति का सोया विवेक जाग पड़ा । जाग्रत विवेक ने साहित्यकार को दिशा -बोध दिया । वह दायित्व को पहचान जुट पड़ा लोक मानस का परिष्कार करने के लिए , साहित्यकार के दायित्व और गरिमा को पहचानने वाले मनीषी थे ---- पं. महावीर प्रसाद द्धिवेदी वे कहा करते थे --- साहित्यकार को समाज सेवी होना आवश्यक है । तभी वह समाज में जाग्रति पैदा करने वाला साहित्य दे सकता हैं । स्वयं उन्होंने ऐसा किया भी । उन्होंने अपने जीवन का बहुत समय किसानो की सेवा में बिताया और अंत तक इसे निभाते रहे । श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने उनके बारे में लिखा है कि द्धिवेदी जी किसानो के पास जाते , उनकी समस्याएं सुनते और निवारण के प्रयास करते । एक बार किसी किसान का लड़का जंगली खाद्दान की रोटी खा रहा था और आगे चले तो देखा एक किसान बीमार पड़ा है । बस , तुरंत घर लौटे और एक के लिए सब्जी व दूसरे के लिए दवा लेकर हाजिर हो गए । बनारसीदास जी की पूछने पर उन्होंने कहा --- ' सेवा और साहित्य रचना एक सिक्के के दो पहलू हैं । इससे एक लाभ और मिलता है कि विभिन्न अंचलों में रहने वाले जन -समुदाय की मानसिक -संरचना के बारे में गंभीर और बारीक़ जानकारियां मिलती हैं । इसी आधार पर प्रभावी ढंग से शैली का परिवर्तन , गठन और सुधार किया जा सकता है । साहित्य -सृजन और समाज निर्माण दोनों एक हैं । ' द्धिवेदी जी ने स्वयं को ईश्वर की एक शक्ति के रूप में समझा और सेवा व सृजन को एक किया । गणेश शंकर विद्दार्थी , मैथलीशरण गुप्त जैसे अनेक व्यक्तियों को सामान्य से उठाकर मूर्धन्य बनाया । एक समूचा युग ही द्धिवेदी युग के रूप में सँवारा ।
युवावस्था के प्रारंभिक दिनों में इन्होने एक सस्ता साहित्य लिखा जिसे जन समुदाय ने पसंद किया , बिक्री भी खूब हुई , पर्याप्त धन भी मिला । मित्र मंडली ने बहुत आग्रह किया तो दो पाण्डुलिपियां और लिख लीं । घर की सफाई-सुव्यवस्था में उनकी पत्नी ने ये पाण्डुलिपियां देखी तो अपने पति की करतूत पर तिलमिला गईं । उन्होंने पति को फटकार लगाई -----
" जनमानस में कुत्सित -भावों को पनपाने में जो सस्ती लोकप्रियता और धन मिलता है उस पर धिक्कार है । ऐसे साहित्यकार से तो गँवार होना अच्छा । भगवान ने अकल दी है , कलम में ताकत दी है तो सामाजिक समस्याओं के निदान क्यों नहीं सुझाते ? जनरुचि को परिमार्जित कर आदर्शों की ओर मोड़ने के लिए क्यों नहीं लिखते ? "
पत्नी की फटकार से पति का सोया विवेक जाग पड़ा । जाग्रत विवेक ने साहित्यकार को दिशा -बोध दिया । वह दायित्व को पहचान जुट पड़ा लोक मानस का परिष्कार करने के लिए , साहित्यकार के दायित्व और गरिमा को पहचानने वाले मनीषी थे ---- पं. महावीर प्रसाद द्धिवेदी वे कहा करते थे --- साहित्यकार को समाज सेवी होना आवश्यक है । तभी वह समाज में जाग्रति पैदा करने वाला साहित्य दे सकता हैं । स्वयं उन्होंने ऐसा किया भी । उन्होंने अपने जीवन का बहुत समय किसानो की सेवा में बिताया और अंत तक इसे निभाते रहे । श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने उनके बारे में लिखा है कि द्धिवेदी जी किसानो के पास जाते , उनकी समस्याएं सुनते और निवारण के प्रयास करते । एक बार किसी किसान का लड़का जंगली खाद्दान की रोटी खा रहा था और आगे चले तो देखा एक किसान बीमार पड़ा है । बस , तुरंत घर लौटे और एक के लिए सब्जी व दूसरे के लिए दवा लेकर हाजिर हो गए । बनारसीदास जी की पूछने पर उन्होंने कहा --- ' सेवा और साहित्य रचना एक सिक्के के दो पहलू हैं । इससे एक लाभ और मिलता है कि विभिन्न अंचलों में रहने वाले जन -समुदाय की मानसिक -संरचना के बारे में गंभीर और बारीक़ जानकारियां मिलती हैं । इसी आधार पर प्रभावी ढंग से शैली का परिवर्तन , गठन और सुधार किया जा सकता है । साहित्य -सृजन और समाज निर्माण दोनों एक हैं । ' द्धिवेदी जी ने स्वयं को ईश्वर की एक शक्ति के रूप में समझा और सेवा व सृजन को एक किया । गणेश शंकर विद्दार्थी , मैथलीशरण गुप्त जैसे अनेक व्यक्तियों को सामान्य से उठाकर मूर्धन्य बनाया । एक समूचा युग ही द्धिवेदी युग के रूप में सँवारा ।
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