' जीवन स्वयं मे देवता है, अपरिमित शक्ति का स्रोत । भावमय प्रेम इसकी उपासना है । साहस भरा पुरुषार्थ इस जीवन देवता की साधना है और मौत की मनहूसियत से मरते जा रहे विश्व-वसुधा में जीवन चेतना का प्रसार ही इसकी आराधना है । "
छत्रपति शिवाजी को महाराष्ट्र के अधिपति बनाने में जो योगदान समर्थ गुरु रामदास का रहा---- वही बालाजी विश्वनाथ को एक सामान्य क्लर्क से महाराष्ट्र पेशवा बनाने का श्रेय ब्रह्मेन्द्र स्वामी को है ब्रह्मेन्द्र स्वामी के बचपन का नाम विष्णुपंत था । जब वे दस वर्ष के थे तभी इनके माता-पिता का देहावसान हो गया । जमीन-जायदाद सगे-संबंधियों ने हड़प ली, और अब वे उनकी उपेक्षा करते, रुखी रोटी भी नहीं देते । निर्धनता और कष्टपूर्ण जीवन से तंग आकर वे एक उजाड़ ऊँची चोटी पर आत्म हत्या करने पहुंचे । बस ! कूदने से दो कदम की दूरी पर थे कि किसी वाणी
ठहरो ! ने उन्हें पीछे खींच लिया ।
वे महापुरुष जिनकी वाणी मे पीछे घसीट लेने की ताकत थी--- वे थे परम योगी--- ज्ञानेन्द्र सरस्वती । उन्होंने समझाया---- " मरकर परिस्थितियों को बदला नहीं जा सकता । संकटों से डरकर जीवन से भागना भीरुता है । जीवन उसका है जो द्रढ़तापूर्वक उसे अपनाता है । जो कठिनाइयों के मस्तक पर अपने मजबूत पाँव जमाकर खड़ा हो सकता है । जीवन अधीर और भीरु का नहीं है ।' उन्होंने समझाया--- " आत्महत्या पाप है । कर्मों का नाश नहीं होता । अगला जीवन वहीँ से शुरू होगा, जहां से तुमने इसे छोड़ा था ।
जीवन बहुमूल्य संपदा है, उसका सदुपयोग करो । नियति की यही इच्छा है कि मनुष्य ऊँचा उठे ।
दूसरे के दुःख को, पीड़ा को अपनी ही पीड़ा समझो । औरों को ऊँचा उठाने में लगी दुर्बल भुजाएं थोड़े ही समय में लौह दण्ड बन जायेंगी । मानव जीवन की गरिमा को पहचानो । "
परमयोगी ज्ञानेन्द्र सरस्वती के जीवन के महामंत्र की दीक्षा से स्वयं के जीवन को नष्ट करने के लिए उतारू युवक विष्णुपंत ब्रह्मेन्द्र स्वामी में बदल गया । जीवन के इस आराधक ने 17वीं सदी में महाराष्ट्र के इतिहास को नया मोड़ दिया ।
ब्रह्मेन्द्र स्वामी का मराठा सामंतों पर बड़ा प्रभाव था । इस प्रभाव का उपयोग उन्होंने उन्हें एक सूत्र में बांधकर रखने में किया | उनके तपोमय जीवन और लोकमंगल की साधना ने हिन्दू के उत्थान में जो योगदान दिया उसे भुलाया नहीं जा सकता ।
छत्रपति शिवाजी को महाराष्ट्र के अधिपति बनाने में जो योगदान समर्थ गुरु रामदास का रहा---- वही बालाजी विश्वनाथ को एक सामान्य क्लर्क से महाराष्ट्र पेशवा बनाने का श्रेय ब्रह्मेन्द्र स्वामी को है ब्रह्मेन्द्र स्वामी के बचपन का नाम विष्णुपंत था । जब वे दस वर्ष के थे तभी इनके माता-पिता का देहावसान हो गया । जमीन-जायदाद सगे-संबंधियों ने हड़प ली, और अब वे उनकी उपेक्षा करते, रुखी रोटी भी नहीं देते । निर्धनता और कष्टपूर्ण जीवन से तंग आकर वे एक उजाड़ ऊँची चोटी पर आत्म हत्या करने पहुंचे । बस ! कूदने से दो कदम की दूरी पर थे कि किसी वाणी
ठहरो ! ने उन्हें पीछे खींच लिया ।
वे महापुरुष जिनकी वाणी मे पीछे घसीट लेने की ताकत थी--- वे थे परम योगी--- ज्ञानेन्द्र सरस्वती । उन्होंने समझाया---- " मरकर परिस्थितियों को बदला नहीं जा सकता । संकटों से डरकर जीवन से भागना भीरुता है । जीवन उसका है जो द्रढ़तापूर्वक उसे अपनाता है । जो कठिनाइयों के मस्तक पर अपने मजबूत पाँव जमाकर खड़ा हो सकता है । जीवन अधीर और भीरु का नहीं है ।' उन्होंने समझाया--- " आत्महत्या पाप है । कर्मों का नाश नहीं होता । अगला जीवन वहीँ से शुरू होगा, जहां से तुमने इसे छोड़ा था ।
जीवन बहुमूल्य संपदा है, उसका सदुपयोग करो । नियति की यही इच्छा है कि मनुष्य ऊँचा उठे ।
दूसरे के दुःख को, पीड़ा को अपनी ही पीड़ा समझो । औरों को ऊँचा उठाने में लगी दुर्बल भुजाएं थोड़े ही समय में लौह दण्ड बन जायेंगी । मानव जीवन की गरिमा को पहचानो । "
परमयोगी ज्ञानेन्द्र सरस्वती के जीवन के महामंत्र की दीक्षा से स्वयं के जीवन को नष्ट करने के लिए उतारू युवक विष्णुपंत ब्रह्मेन्द्र स्वामी में बदल गया । जीवन के इस आराधक ने 17वीं सदी में महाराष्ट्र के इतिहास को नया मोड़ दिया ।
ब्रह्मेन्द्र स्वामी का मराठा सामंतों पर बड़ा प्रभाव था । इस प्रभाव का उपयोग उन्होंने उन्हें एक सूत्र में बांधकर रखने में किया | उनके तपोमय जीवन और लोकमंगल की साधना ने हिन्दू के उत्थान में जो योगदान दिया उसे भुलाया नहीं जा सकता ।
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