दक्षिण भारत में पैदा होकार भी हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसर में अनूठा योगदान देने वाले हिन्दी भक्त श्रीरंगम रामस्वामी श्रीनिवास राघवन थे जो बाद में राघवन जी के नाम से विख्यात हुए । उन्होंने स्वयं ही नहीं वरन उनके सारे परिवार ने राष्ट्र भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बड़ा श्रम किया । श्री राघवन का जन्म 1900 में बैंगलोर के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था । उन्होंने देश के राजनीतिक-आन्दोलन में भाग लिया , उनके द्वारा सम्पादित किए गये समाज सुधार के कार्यों में मद्द -निषेध विशेष रूप से स्मरणीय है ।
श्री राघवन को विशेष श्रेय मिला राष्ट्र -भाषा हिन्दी के प्रचार -प्रसार में । हिन्दी प्रचार का कार्य उन्होंने अपने घर से शुरू किया ---- अपनी पत्नी को हिन्दी सिखाकर । श्री राघवन ने
19 4 8 में दिल्ली में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की एक शाखा स्थापित की और अहिन्दी भाषी प्रदेशों के भाई -बहिनो को हिन्दी सिखाने का काम शुरू किया । उन्होंने एक भाषा के सूत्र में उत्तर -दक्षिण को बाँधने का महत्वपूर्ण काम हाथ में लिया ।
उनकी शाखा द्वारा चलाये गये पहले शिक्षण सत्र में केवल सात शिक्षणार्थी आए । कुछ ही दिनों में यह छोटा सा विद्दालय बड़ा आकार ग्रहण करने लगा । उनका कार्य बढ़ा तो पत्राचार के द्वारा हिन्दी -भाषा का शिक्षण दिया जाने लगा । धीरे -धीरे उनका सारा परिवार है इस पुण्य कार्य में जुट गया ।
हिन्दी -प्रचार के कार्य को उन्होंने अपनी इकलौती पुत्री के ब्याह की तरह पूरे रस व दयित्व से संपादित किया । उनके इन कार्यों को देखते हुए उन्हे राष्ट्र व्यापी सम्मान भी मिला । कई हिन्दी सेवी संस्थायें और अनेक हिन्दी पत्रिकाएं उनके सहयोग व मार्गदर्शन से लाभान्वित हुईं ।
1 4 सितम्बर को ' हिन्दी दिवस ' के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन भी उन्ही ने किया था ।
एक अहिन्दी -भाषी प्रदेश के व्यक्ति द्वारा दुराग्रहों से मुक्त होकर सारा जीवन राष्ट्रभाषा के लिए समर्पित कर देना हर हिन्दी -प्रेमी के लिए प्रेरणादायक है ।
श्री राघवन को विशेष श्रेय मिला राष्ट्र -भाषा हिन्दी के प्रचार -प्रसार में । हिन्दी प्रचार का कार्य उन्होंने अपने घर से शुरू किया ---- अपनी पत्नी को हिन्दी सिखाकर । श्री राघवन ने
19 4 8 में दिल्ली में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की एक शाखा स्थापित की और अहिन्दी भाषी प्रदेशों के भाई -बहिनो को हिन्दी सिखाने का काम शुरू किया । उन्होंने एक भाषा के सूत्र में उत्तर -दक्षिण को बाँधने का महत्वपूर्ण काम हाथ में लिया ।
उनकी शाखा द्वारा चलाये गये पहले शिक्षण सत्र में केवल सात शिक्षणार्थी आए । कुछ ही दिनों में यह छोटा सा विद्दालय बड़ा आकार ग्रहण करने लगा । उनका कार्य बढ़ा तो पत्राचार के द्वारा हिन्दी -भाषा का शिक्षण दिया जाने लगा । धीरे -धीरे उनका सारा परिवार है इस पुण्य कार्य में जुट गया ।
हिन्दी -प्रचार के कार्य को उन्होंने अपनी इकलौती पुत्री के ब्याह की तरह पूरे रस व दयित्व से संपादित किया । उनके इन कार्यों को देखते हुए उन्हे राष्ट्र व्यापी सम्मान भी मिला । कई हिन्दी सेवी संस्थायें और अनेक हिन्दी पत्रिकाएं उनके सहयोग व मार्गदर्शन से लाभान्वित हुईं ।
1 4 सितम्बर को ' हिन्दी दिवस ' के रूप में मनाने की प्रथा का प्रचलन भी उन्ही ने किया था ।
एक अहिन्दी -भाषी प्रदेश के व्यक्ति द्वारा दुराग्रहों से मुक्त होकर सारा जीवन राष्ट्रभाषा के लिए समर्पित कर देना हर हिन्दी -प्रेमी के लिए प्रेरणादायक है ।
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