' मंदिर को समुन्नत और स्वावलंबी संस्था का सफल रूप प्रदान कर स्वामी सोमदत्त गिरि ने यह सिद्ध कर दिया कि साधुओं को यदि सामाजिक जीवन में अपनी प्रतिष्ठा और उत्तरदायित्व के पालन की योग्यता बनाये रखनी है तो उन्हें स्वावलंबी, कर्मठ और परिश्रमी होना चाहिए | जो औरों को मार्ग दिखाता है, औरों का कल्याण करता है उसे भगवान का भक्त होने के साथ कर्मयोगी भी होना चाहिये । ' सोमदत्त गिरि के गुरु जिस शिव मंदिर में पूजा करते थे, उस मंदिर व उनकी आजीविका के लिए गांव वालों ने थोड़ी जमीन दे दी थी , वे अपने भोजन व आजीविका के लिए किसी पर निर्भर रहना नहीं चाहते थे। उन्होंने दिन में 8 घंटे लगातार काम करके उस जमीन को साफ किया, सूखी लकड़ी बेचकर गाय खरीदी, दूध से अपने भोजन का काम चलाते । उन्होंने मेहनत करके भूमि को कृषि -योग्य बना लिया । भूमि पर तरह -तरह की सब्जियां उगाईं , उन्हें बेचकर बुवाई के समय मैक्सिकन गेहूं का बीज लाकर बोया , उत्तम खाद और समय पर पानी से बहुत अच्छी फसल तैयर हुई । वे शाम के समय कीर्तन -भजन करते और दिन मे धूनी -कमण्डल के स्थान पर खुरपी -फावड़ा लेकर परिश्रम कर एक आदर्श प्रस्तुत किया ।
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