जापान के आदर्श-शिक्षक मियासावा केन्जी आज संसार की विभूति बन गये हैं । उन्होंने इतने सुन्दर बाल-साहित्य का सृजन किया कि वह सारे संसार में विश्व बाल-साहित्य के रूप में स्वीकृत कर लिया गया, संसार की लगभग सभी भाषाओँ में उसका अनुवाद किया जा रहा है ।
कृषि विषयक अध्ययन पूर्ण कर वे कृषि विद्दालय में अध्यापन कार्य करने लगे । पांच-छह वर्ष बाद वे अध्यापन कार्य छोड़कर वे कृषि करने लगे । उन्होंने नगर से दूर जंगल में स्वयं अपने हाथ से झाड़ियाँ काटकर छोटा सा फार्म बनाया, वे अपने हाथ से खेती करते और छात्रों कों नि:शुल्क प्रशिक्षण देते, इसके साथ ही उन्होंने गांव में भी छोटे-छोटे प्रशिक्षण केंद्र खोले, जहां किसानो को आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता था ।
उन्होंने एक ' आदर्श-धरती-मानव-संघ ' की स्थापना का सूत्रपात किया । इसका उद्देश्य बताते हुए उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि कृषि विद्दालय से निकले हुए छात्र कवल मौखिक शिक्षक ही न बने बल्कि वे अपने हाथों से खेती करें जिससे कि परिश्रम और बौद्धिकता का समन्वय हो सके । वे गाँव-गाँव घूमते, किसानो को इकट्ठा कर श्रम का महत्व बताते हुए कृषि की वैज्ञानिक विधि समझाते । श्रीकेन्जी के अथक प्रयत्नों का फल ये हुआ कि जापान की जनता ने श्रम तथा कृषि की महत्ता समझी और शीघ्र ही जापान पिछड़े हुए देशों की पंक्ति से विकसित देशों की पंक्ति में आ गया ।
उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया, वे कहते थे केवल श्रम ही ऐसा साधन है जो इस व्रत की सफलता में सहायक हो सकता है । उनका कहना था कि ब्रह्मचर्य व्रत की सार्थकता तभी है जब उससे उपार्जित शक्तियों का प्रयोग संसार के कल्याण के लिए किया जाये ।
कृषि विषयक अध्ययन पूर्ण कर वे कृषि विद्दालय में अध्यापन कार्य करने लगे । पांच-छह वर्ष बाद वे अध्यापन कार्य छोड़कर वे कृषि करने लगे । उन्होंने नगर से दूर जंगल में स्वयं अपने हाथ से झाड़ियाँ काटकर छोटा सा फार्म बनाया, वे अपने हाथ से खेती करते और छात्रों कों नि:शुल्क प्रशिक्षण देते, इसके साथ ही उन्होंने गांव में भी छोटे-छोटे प्रशिक्षण केंद्र खोले, जहां किसानो को आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता था ।
उन्होंने एक ' आदर्श-धरती-मानव-संघ ' की स्थापना का सूत्रपात किया । इसका उद्देश्य बताते हुए उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि कृषि विद्दालय से निकले हुए छात्र कवल मौखिक शिक्षक ही न बने बल्कि वे अपने हाथों से खेती करें जिससे कि परिश्रम और बौद्धिकता का समन्वय हो सके । वे गाँव-गाँव घूमते, किसानो को इकट्ठा कर श्रम का महत्व बताते हुए कृषि की वैज्ञानिक विधि समझाते । श्रीकेन्जी के अथक प्रयत्नों का फल ये हुआ कि जापान की जनता ने श्रम तथा कृषि की महत्ता समझी और शीघ्र ही जापान पिछड़े हुए देशों की पंक्ति से विकसित देशों की पंक्ति में आ गया ।
उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया, वे कहते थे केवल श्रम ही ऐसा साधन है जो इस व्रत की सफलता में सहायक हो सकता है । उनका कहना था कि ब्रह्मचर्य व्रत की सार्थकता तभी है जब उससे उपार्जित शक्तियों का प्रयोग संसार के कल्याण के लिए किया जाये ।
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