महाराष्ट्र में गांधीजी से प्रेरणा पाकर जिन लोगों ने समाज सेवा में अपने को लगा दिया था, उनमे आचार्य मिसे का स्थान उल्लेखनीय है । सतत साठ वर्ष तक गरीबों, दलितों और आदिवासियों की सेवा में उन्होंने अपना जीवन खपा दिया । समाज की खासकर पिछड़े हुए समाज की भलाई के सिवा दूसरा कोई विषय उन्हें सूझता नहीं था ।
बम्बई विश्वविद्यालय से उपाधि प्राप्त कर उन्होंने वहीँ एक माध्यमिक विद्दालय से शिक्षक के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया । आदिवासी लोगों का अज्ञान तथा घोर दरिद्रता देख कर उन्हें बड़ी मानसिक अशांति होती थी । अपनी इस अस्वस्थता को दूर करने के लिए वे निर्जन वन में घूम रहे थे कि उनकी नजर एक समाधि पर जा पड़ी, उस समाधि पर एक शिलालेख लगा था ।
वह समाधि एक विदेशी मिशनरी की थी । पांच हजार मील दूर से आकर उसने अपने को आदिवासियों की सेवा में समर्पित कर दिया था, अंतिम साँस तक वह सेवा में संलग्न रहा ।
श्री मिसे जी वहीं बैठकर सोचने लगे----- हम भारतीय संस्कृति का बड़ा घमण्ड करते हैं लेकिन जनता की भलाई के लिए जीवन खपाने की कल्पना भी नहीं करते, और एक यह इनसान था जो पांच हजार मील दूर से आकर आदिवासियों की सेवा में अपना जीवन लगा देता है । ये लोग न उसके सगे-संबंधी हैं और न ही उसकी चमड़ी के रंग के हैं, फिर भी वह सेवा करने को दौड़ा आता है और एक हम हैं जो पिछड़े बंधुओं की सेवा से जी चुराते हैं ।
श्री मिसे जी के जीवन का यः क्रांतिकारी क्षण था । वहां से मिसे जी लौटे, बिलकुल नये बनकर, नया संकल्प लेकर । उन्होंने कुलाबा जिले के अंतर्गत समुद्र के किनारे बोर्डी नामक गाँव में जहां आदिवासी बहुत बसते थे, एक विद्दालय आरम्भ किया ।
विद्दालय के काम से छुट्टी पाते ही वे आदिवासियों के बीच जाकर उनमे साहस और स्वाभिमान का भाव भरते थे । आदिवासी उस समय खेती का सही ढंग भी नहीं जानते थे । जंगल जलाकर उसी भूमि पर यों ही अनाज फेंक देते, उससे जो कुछ पैदा होता उसी से गुजर-बसर करते । तब आचार्य मिसे जी ने नये कृषि-विज्ञान से आदिवासियों को अवगत कराने के लिए पास ही में कोसवाड़ नामक पहाड़ी स्थान पर उन्होंने कृषि-विद्दालय की स्थापना की , बच्चों को नये जीवन की दीक्षा देने के लिए ग्रामीण बाल-प्रशिक्षण केंद्र शुरू किया, भेड़-बकरियां चराने वाले बच्चों कों उन्ही के पास जा कर प्रशिक्षण दिया जाने लगा । समाज सुधार एवं व्यसन मुक्ति के लिए उन्होंने आश्रम तथा पाठशालाओं की योजना अपने हाथ में ली । सतत सेवा कार्य करते हुए 4 जुलाई 1971 को आषाढ़ शुक्ल एकादशी के पवित्र दिन उनका देहान्त हुआ ।
बम्बई विश्वविद्यालय से उपाधि प्राप्त कर उन्होंने वहीँ एक माध्यमिक विद्दालय से शिक्षक के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया । आदिवासी लोगों का अज्ञान तथा घोर दरिद्रता देख कर उन्हें बड़ी मानसिक अशांति होती थी । अपनी इस अस्वस्थता को दूर करने के लिए वे निर्जन वन में घूम रहे थे कि उनकी नजर एक समाधि पर जा पड़ी, उस समाधि पर एक शिलालेख लगा था ।
वह समाधि एक विदेशी मिशनरी की थी । पांच हजार मील दूर से आकर उसने अपने को आदिवासियों की सेवा में समर्पित कर दिया था, अंतिम साँस तक वह सेवा में संलग्न रहा ।
श्री मिसे जी वहीं बैठकर सोचने लगे----- हम भारतीय संस्कृति का बड़ा घमण्ड करते हैं लेकिन जनता की भलाई के लिए जीवन खपाने की कल्पना भी नहीं करते, और एक यह इनसान था जो पांच हजार मील दूर से आकर आदिवासियों की सेवा में अपना जीवन लगा देता है । ये लोग न उसके सगे-संबंधी हैं और न ही उसकी चमड़ी के रंग के हैं, फिर भी वह सेवा करने को दौड़ा आता है और एक हम हैं जो पिछड़े बंधुओं की सेवा से जी चुराते हैं ।
श्री मिसे जी के जीवन का यः क्रांतिकारी क्षण था । वहां से मिसे जी लौटे, बिलकुल नये बनकर, नया संकल्प लेकर । उन्होंने कुलाबा जिले के अंतर्गत समुद्र के किनारे बोर्डी नामक गाँव में जहां आदिवासी बहुत बसते थे, एक विद्दालय आरम्भ किया ।
विद्दालय के काम से छुट्टी पाते ही वे आदिवासियों के बीच जाकर उनमे साहस और स्वाभिमान का भाव भरते थे । आदिवासी उस समय खेती का सही ढंग भी नहीं जानते थे । जंगल जलाकर उसी भूमि पर यों ही अनाज फेंक देते, उससे जो कुछ पैदा होता उसी से गुजर-बसर करते । तब आचार्य मिसे जी ने नये कृषि-विज्ञान से आदिवासियों को अवगत कराने के लिए पास ही में कोसवाड़ नामक पहाड़ी स्थान पर उन्होंने कृषि-विद्दालय की स्थापना की , बच्चों को नये जीवन की दीक्षा देने के लिए ग्रामीण बाल-प्रशिक्षण केंद्र शुरू किया, भेड़-बकरियां चराने वाले बच्चों कों उन्ही के पास जा कर प्रशिक्षण दिया जाने लगा । समाज सुधार एवं व्यसन मुक्ति के लिए उन्होंने आश्रम तथा पाठशालाओं की योजना अपने हाथ में ली । सतत सेवा कार्य करते हुए 4 जुलाई 1971 को आषाढ़ शुक्ल एकादशी के पवित्र दिन उनका देहान्त हुआ ।
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