वे आजीवन अछूतोद्धार, आदिवासियों के सुधार और संकटग्रस्त लोगों की सेवा में लगे रहे । उन्होंने एक क्षण कों भी बैठकर अपने व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयों, अभावों और आवश्यकताओं पर नहीं सोचा । वे जहां भी मानवता को त्रस्त देखते सेवा करने दौड़ पड़ते । कच्छ और गुजरात में जब भयंकर अकाल पड़ा तो वे पीड़ितों की सेवा में दिन-रात लगे रहे । उनकी यह सेवा-भावना देखकर गाँधीजी ने कहा था---" यदि मैं भी बापा जैसी सेवा भावना पा जाता तो अपने को धन्य समझता । "
ठक्कर बापा का जन्म 1869 में सौराष्ट्र के भावनगर में हुआ था । इंजीनियरिंग पास करके बम्बई कार्पोरेशन में इंजीनियर के पद पर नियुक्ति हुई । यहां उन्हें स्वच्छता, प्रकाश और ट्राम के निरीक्षण का काम सौंपा गया । सफाई के सिलसिले में उन्हें मेहतरों की बस्ती में भी जाना होता था, इससे उन्हें उनकी दुर्दशा और दयनीय अवस्था का ज्ञान हुआ । उन्होंने उनके सुधार के लिये प्रयत्न करना शुरू किया ।
1914 में इंजीनियर पद से त्यागपत्र दे कर उन्होंने स्वयं को जन-सेवा में समर्पित कर दिया ।
ठक्कर बापा भाषणों और लेखों द्वारा प्रचार करने को पसंद नहीं करते थे । उनका कहना था कि जनसेवा का अर्थ है--- जन-जन से सम्पर्क रखना और सक्रिय रूप से उनकी सेवा करना । भाषणों आदि से उनका कोई हित नहीं हो सकता और न वे सुधार के मार्ग पर चल सकेंगे । सच्चा सुधार करने के लिए अपने को उनमे मिला देना ही होगा ।
अपने इसी विश्वास के अनुसार उन्होंने न कभी कोई सभा जोड़ी और न कोई अभियान चलाया । वे अछूतों की बस्ती में अकेले जाते, उन्हें समझाते, उनके बच्चों को पढ़ाते, उनके मकानों की सफाई करते, बुरी आदते छोड़ने के लिए समझाते, उनसे अपना सुधार करने की प्रार्थना करते । ऐसा लगता मानो अपना सुधार करके अछूत अपना हित न करके उन पर ही कृपा करेंगे । उनके इन व्यक्तिगत प्रयत्नों का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि अछूतों में सुधार प्रारम्भ हो गया । अछूतोद्धार के मामले में लोग उन्हें दूसरे गाँधी कहते थे ।
ठक्कर बापा का जन्म 1869 में सौराष्ट्र के भावनगर में हुआ था । इंजीनियरिंग पास करके बम्बई कार्पोरेशन में इंजीनियर के पद पर नियुक्ति हुई । यहां उन्हें स्वच्छता, प्रकाश और ट्राम के निरीक्षण का काम सौंपा गया । सफाई के सिलसिले में उन्हें मेहतरों की बस्ती में भी जाना होता था, इससे उन्हें उनकी दुर्दशा और दयनीय अवस्था का ज्ञान हुआ । उन्होंने उनके सुधार के लिये प्रयत्न करना शुरू किया ।
1914 में इंजीनियर पद से त्यागपत्र दे कर उन्होंने स्वयं को जन-सेवा में समर्पित कर दिया ।
ठक्कर बापा भाषणों और लेखों द्वारा प्रचार करने को पसंद नहीं करते थे । उनका कहना था कि जनसेवा का अर्थ है--- जन-जन से सम्पर्क रखना और सक्रिय रूप से उनकी सेवा करना । भाषणों आदि से उनका कोई हित नहीं हो सकता और न वे सुधार के मार्ग पर चल सकेंगे । सच्चा सुधार करने के लिए अपने को उनमे मिला देना ही होगा ।
अपने इसी विश्वास के अनुसार उन्होंने न कभी कोई सभा जोड़ी और न कोई अभियान चलाया । वे अछूतों की बस्ती में अकेले जाते, उन्हें समझाते, उनके बच्चों को पढ़ाते, उनके मकानों की सफाई करते, बुरी आदते छोड़ने के लिए समझाते, उनसे अपना सुधार करने की प्रार्थना करते । ऐसा लगता मानो अपना सुधार करके अछूत अपना हित न करके उन पर ही कृपा करेंगे । उनके इन व्यक्तिगत प्रयत्नों का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि अछूतों में सुधार प्रारम्भ हो गया । अछूतोद्धार के मामले में लोग उन्हें दूसरे गाँधी कहते थे ।
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