कलिंग विजय के बाद सम्राट अशोक का ह्रदय परिवर्तन हो गया, वह विचार करने लगा कि मनुष्यों को मारकर , अधिकार और राज्य लिप्सा के लिए किसी जाति या भू-भाग को जीतना सच्ची विजय नहीं है । विजय तो आत्मा की वस्तु है । लोगों के ह्रदय को जीतना ही सच्ची विजय है ।
उन्होंने सोचा--- जितना श्रम, जितना धन, जितने साधन, जितना पुरुषार्थ, अहंकार और स्वार्थ की पूर्ति के लिये आरम्भ किये गये इन निकृष्ट कार्यों में व्यय किया जाता है, उतना यदि रचनात्मक कार्यों में लगाया जा सके तो उससे मानवीय सुख-शान्ति, प्रगति और समृद्धि में कितना बड़ा योगदान मिल सकता है । सम्राट अशोक ने यह निश्चय किया कि-- उन्हे जो शक्ति और स्थिति मिली है, उसे व्यर्थ कामों में नहीं, स्वार्थपूर्ण कार्यों में भी नहीं, केवल विश्व-मानव की सेवा में ही प्रयुक्त करेंगे ।
सम्राट अशोक ने राज-भवन की समग्र सम्पदा लोक-कल्याण में लगा दी । अशोक को यात्राओं का शौक था । राजसिंहासन पर बैठने के प्रथम आठ वर्षों में ये विनोद यात्राएँ, विलासिता, हास-परिहास, शराब, मांस, नृत्य, आखेट आदि के साथ चलती थीं । किन्तु धर्म दीक्षित सम्राट ने अब इन यात्राओं को धर्म प्रचार के निमित की जाने वाली तीर्थ यात्राओं में बदल दिया ।
इतिहास मर्मज्ञ एच. जी. वेल्स ने लिखा है---- " संसार के सर्वश्रेष्ठ सम्राट तथा इनके 28 वर्ष के राज्यकाल को मानव-जाति के क्लेशपूर्ण इतिहास का सर्वोत्तम समय कहा जा सकता है । "
सम्राट अशोक ने मांसाहार को निषिद्ध कर प्राणी मात्र की हिंसा बंद कर दी थी । पशु एवं मनुष्यों के लिए अनेक चिकित्सालय खुलवाये, सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये, कुँए खुदवाये, जेलों की दशा सुधारी, न्याय सरलता पूर्वक मिल सके ऐसी व्यवस्था की | उन्होंने मनुष्यों के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों के लिए भी न्याय का अधिकार पाने की व्यवस्था की ।
अशोक ने धर्म और सदाचार के प्रति मानव प्रवृतियों को मोड़ने के लिए भारत ही नहीं संसार भर में विद्वान धर्म प्रचारक भेजे, उनका व्यय-भार वहन किया, धर्म-ग्रन्थ लिखवाये, पुस्तकालय स्थापित किये, विद्दालय खोले, सम्मेलन बुलाये और ये सब कार्य बड़ी रूचि पूर्वक किये जिससे जन-सामान्य को धर्म बुद्धि अपनाने की प्रवृति को प्रोत्साहन मिले । दिग्विजय धर्म विजय में परिणत हो गई, सन्त-महापुरुषों ने सम्राट अशोक को ' देवताओं का प्रिय ' कहकर संबोधित किया ।
राजाओं के राज्य उनके मरते ही बिखर गये पर अशोक द्वारा स्थापित किया हुआ धर्म राज्य आज भी बौद्ध धर्म के रूप में संसार में विद्दमान है ।
उन्होंने सोचा--- जितना श्रम, जितना धन, जितने साधन, जितना पुरुषार्थ, अहंकार और स्वार्थ की पूर्ति के लिये आरम्भ किये गये इन निकृष्ट कार्यों में व्यय किया जाता है, उतना यदि रचनात्मक कार्यों में लगाया जा सके तो उससे मानवीय सुख-शान्ति, प्रगति और समृद्धि में कितना बड़ा योगदान मिल सकता है । सम्राट अशोक ने यह निश्चय किया कि-- उन्हे जो शक्ति और स्थिति मिली है, उसे व्यर्थ कामों में नहीं, स्वार्थपूर्ण कार्यों में भी नहीं, केवल विश्व-मानव की सेवा में ही प्रयुक्त करेंगे ।
सम्राट अशोक ने राज-भवन की समग्र सम्पदा लोक-कल्याण में लगा दी । अशोक को यात्राओं का शौक था । राजसिंहासन पर बैठने के प्रथम आठ वर्षों में ये विनोद यात्राएँ, विलासिता, हास-परिहास, शराब, मांस, नृत्य, आखेट आदि के साथ चलती थीं । किन्तु धर्म दीक्षित सम्राट ने अब इन यात्राओं को धर्म प्रचार के निमित की जाने वाली तीर्थ यात्राओं में बदल दिया ।
इतिहास मर्मज्ञ एच. जी. वेल्स ने लिखा है---- " संसार के सर्वश्रेष्ठ सम्राट तथा इनके 28 वर्ष के राज्यकाल को मानव-जाति के क्लेशपूर्ण इतिहास का सर्वोत्तम समय कहा जा सकता है । "
सम्राट अशोक ने मांसाहार को निषिद्ध कर प्राणी मात्र की हिंसा बंद कर दी थी । पशु एवं मनुष्यों के लिए अनेक चिकित्सालय खुलवाये, सड़क के किनारे छायादार वृक्ष लगवाये, कुँए खुदवाये, जेलों की दशा सुधारी, न्याय सरलता पूर्वक मिल सके ऐसी व्यवस्था की | उन्होंने मनुष्यों के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों के लिए भी न्याय का अधिकार पाने की व्यवस्था की ।
अशोक ने धर्म और सदाचार के प्रति मानव प्रवृतियों को मोड़ने के लिए भारत ही नहीं संसार भर में विद्वान धर्म प्रचारक भेजे, उनका व्यय-भार वहन किया, धर्म-ग्रन्थ लिखवाये, पुस्तकालय स्थापित किये, विद्दालय खोले, सम्मेलन बुलाये और ये सब कार्य बड़ी रूचि पूर्वक किये जिससे जन-सामान्य को धर्म बुद्धि अपनाने की प्रवृति को प्रोत्साहन मिले । दिग्विजय धर्म विजय में परिणत हो गई, सन्त-महापुरुषों ने सम्राट अशोक को ' देवताओं का प्रिय ' कहकर संबोधित किया ।
राजाओं के राज्य उनके मरते ही बिखर गये पर अशोक द्वारा स्थापित किया हुआ धर्म राज्य आज भी बौद्ध धर्म के रूप में संसार में विद्दमान है ।
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