' गोपबंधु दास जहां एक ओर प्रचलित मूढ़मान्यताओं के प्रति प्रबल विद्रोही थे वहीँ दूसरी ओर संस्कृति और देश के मौजूदा मानदण्डों के प्रति दृढ आस्थावान भी थे । उनकी उचित-अनुचित का भेद करने वाली बौद्धिक क्षमता और उचित को स्वीकार कर ग्रहण करने तथा अनुचित को अस्वीकार कर उसका परित्याग करने के साहस ने ही उन्हें महामानव बनाया । '
गोपबंधु दास का जन्म उड़ीसा के पुरी जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था । कटक से उन्होंने बी.ए. , एल.एल.बी. उत्तीर्ण की और वहीँ वकालत करने लगे । उन्होंने अन्याय के सामने कभी सिर नहीं झुकाया । वे सांयकाल घूमने जाया करते थे । एक दिन सड़क के किनारे एक बुढ़िया रोती-बिलखती मिली । पूछा तो बताया कि उसके जवान बेटे की मृत्यु हो गई है, पास में एक पैसा भी नहीं है और कोई मदद करने वाला भी नहीं है क्योंकि वह अछूत है ।
गोपबंधु दास ने उसकी मदद की, उसके बेटे का दाह-संस्कार अपने हाथ से किया । इससे नीलगिरि के ब्राह्मण समाज में हलचल मच गई । उनसे कहा गया कि अपनी गलती स्वीकार कर माफी मांगो और जुर्माना दो, अन्यथा समाज से बहिष्कृत कर दिए जाओगे ।
गोपबंधु दास ने कहा--- ' इससे मेरा क्या बिगड़ेगा ' । मनुष्य की सहायता कर मैंने कोई गुनाह नहीं किया, मैं जुर्माना नहीं दूंगा । ' अनीति के आगे वे झुके नहीं, उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया अन्याय न सह्ने के कारण उन्हें कई बार हानियाँ भी उठानी पड़ी । परन्तु उन्होंने सदैव यही माना कि अनीति और अन्याय को सहन कर सुख-सुविधाएं पाने की अपेक्षा उनका विरोध करते हुए कष्ट-कठिनाइयां उठाना अच्छा है ।
अत्यचार और अन्याय का प्रबल विरोध करने में सक्षम युवा पीढ़ी का निर्माण करने के लिए उन्होने सत्यवादी स्कूल की स्थापना की । यहां की शिक्षा- नीति उन्होंने ही निर्धारित की । जिसमे एक और छात्रों को राष्ट्र-प्रेम और समाज निर्माण की शिक्षा दी जाती थी तथा दूसरी ओर प्रचलित सामाजिक कुरीतियों और मूढ़मान्यताओं का विरोध करने तथा उन्हें जड़मूल से उखाड़ फेंकने का साहस तथा प्रेरणा भी भरी जाती थी । इसके साथ ही छात्रों के स्वास्थ्य और चरित्र पर भी ध्यान दिया जाता था । इस स्कूल के छात्र छुट्टियों में बीमारों की सेवा और अशिक्षितों में शिक्षा-प्रसार के लिए जाते थे । ईर्ष्यालु लोगों ने सत्यवादी स्कूल को जला डाला । परंतु इससे गोपबंधु निराश नहीं हुए, उन्होंने स्कूल के खण्डहर पर खड़े होकर जोशीला भाषण दिया । स्कूल का काम रुका नहीं, अब विद्दार्थी खुले आकाश के नीचे पेड़ की छाया में पढ़ने लगे । इस स्कूल से निकले छात्रों ने समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया | लाला लाजपतराय और महात्मा गाँधी ने उनकी बड़ी प्रशंसा की है । गांधीजी तो एक बार उनसे मिलने के लिए स्वयं आये थे और सत्यवादी स्कूल की गतिविधियों, पढ़ाई और वहां की व्यवस्था देखकर मुक्त-कंठ से सराहना की थी |
गोपबंधु दास का जन्म उड़ीसा के पुरी जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था । कटक से उन्होंने बी.ए. , एल.एल.बी. उत्तीर्ण की और वहीँ वकालत करने लगे । उन्होंने अन्याय के सामने कभी सिर नहीं झुकाया । वे सांयकाल घूमने जाया करते थे । एक दिन सड़क के किनारे एक बुढ़िया रोती-बिलखती मिली । पूछा तो बताया कि उसके जवान बेटे की मृत्यु हो गई है, पास में एक पैसा भी नहीं है और कोई मदद करने वाला भी नहीं है क्योंकि वह अछूत है ।
गोपबंधु दास ने उसकी मदद की, उसके बेटे का दाह-संस्कार अपने हाथ से किया । इससे नीलगिरि के ब्राह्मण समाज में हलचल मच गई । उनसे कहा गया कि अपनी गलती स्वीकार कर माफी मांगो और जुर्माना दो, अन्यथा समाज से बहिष्कृत कर दिए जाओगे ।
गोपबंधु दास ने कहा--- ' इससे मेरा क्या बिगड़ेगा ' । मनुष्य की सहायता कर मैंने कोई गुनाह नहीं किया, मैं जुर्माना नहीं दूंगा । ' अनीति के आगे वे झुके नहीं, उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया गया अन्याय न सह्ने के कारण उन्हें कई बार हानियाँ भी उठानी पड़ी । परन्तु उन्होंने सदैव यही माना कि अनीति और अन्याय को सहन कर सुख-सुविधाएं पाने की अपेक्षा उनका विरोध करते हुए कष्ट-कठिनाइयां उठाना अच्छा है ।
अत्यचार और अन्याय का प्रबल विरोध करने में सक्षम युवा पीढ़ी का निर्माण करने के लिए उन्होने सत्यवादी स्कूल की स्थापना की । यहां की शिक्षा- नीति उन्होंने ही निर्धारित की । जिसमे एक और छात्रों को राष्ट्र-प्रेम और समाज निर्माण की शिक्षा दी जाती थी तथा दूसरी ओर प्रचलित सामाजिक कुरीतियों और मूढ़मान्यताओं का विरोध करने तथा उन्हें जड़मूल से उखाड़ फेंकने का साहस तथा प्रेरणा भी भरी जाती थी । इसके साथ ही छात्रों के स्वास्थ्य और चरित्र पर भी ध्यान दिया जाता था । इस स्कूल के छात्र छुट्टियों में बीमारों की सेवा और अशिक्षितों में शिक्षा-प्रसार के लिए जाते थे । ईर्ष्यालु लोगों ने सत्यवादी स्कूल को जला डाला । परंतु इससे गोपबंधु निराश नहीं हुए, उन्होंने स्कूल के खण्डहर पर खड़े होकर जोशीला भाषण दिया । स्कूल का काम रुका नहीं, अब विद्दार्थी खुले आकाश के नीचे पेड़ की छाया में पढ़ने लगे । इस स्कूल से निकले छात्रों ने समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया | लाला लाजपतराय और महात्मा गाँधी ने उनकी बड़ी प्रशंसा की है । गांधीजी तो एक बार उनसे मिलने के लिए स्वयं आये थे और सत्यवादी स्कूल की गतिविधियों, पढ़ाई और वहां की व्यवस्था देखकर मुक्त-कंठ से सराहना की थी |
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