' स्वामी श्रद्धानन्द ( 1856-1926 ) का जीवन त्याग तथा सेवा की कहानी है । परमार्थ के लिए किये गये कार्यों की एक लम्बी श्रंखला है । समाज का जो भी पक्ष उन्हें दुर्बल दिखाई दिया उसे ही उन्होंने मजबूत बनाया । '
जीवन के प्रारंभिक वर्षों में वे कुमार्गगामी थे किन्तु पत्नी के सेवा-सहिष्णुता, नम्रता , त्याग व उदारतापूर्ण व्यवहार से उनके जीवन की दिशा मुड़ी तो ऐसी मुड़ी कि फिर पीछे की ओर मुड़कर भी न देखा, अपनी समस्त दुर्बलताओं को तिलांजलि दे दी । अब उनका एक ही पथ था---- समाज सेवा
। एक ही लक्ष्य था-- भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना ।
उन दिनों आप ' आर्य सन्यासी ' के नाम से विख्यात थे । दिल्ली शहर में तब स्वामी जी का इतना प्रामुख्य था कि आपकी एक आवाज पर लाखों स्वयंसेवक अपनी जान हथेली पर लिये तैयार रहते थे | सब लोग उन्हें दिल्ली का बेताज बादशाह कहते थे ।
उन दिनों अंग्रेजी का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा था । हिन्दी मृतप्राय हो रही थी । राष्ट्र को जीवित रखना है तो राष्ट्र की एक जीवित भाषा भी होनी चाहिये । यह सोचकर उन्होने हिन्दी भाषा का जो प्रचार-प्रसार किया वह एक ऐतिहासिक प्रयत्न है ।
गुरुकुल-शिक्षा पद्धति स्वामी दयानन्द का स्वप्न था और उसे साकार किया स्वामी श्रद्धानन्द ने । कनखल के पास हिमालय की तराई में ' गुरुकुल काँगड़ी ' की स्थापना की । यहां नि:शुल्क शिक्षा देने की व्यवस्था की । मातृभाषा हिन्दी कों शिक्षा का माध्यम बनाने वाले वह प्रथम व्यक्ति थे । गुरुकुल के अनेक स्नातकों द्वारा विज्ञान, दर्शन तथा इतिहास विषय के मौलिक ग्रन्थों की रचना की गई, साथ ही पारिभाषिक शब्दों का निर्माण भी किया गया ।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडानल्ड ने महात्मा श्रद्धानन्द मे ईसा की आत्मा के दर्शन किये थे और इस गुरुकुल की स्थापना को ब्रिटिश सरकार तथा मैकाले शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध प्रथम सफल अभियान कहा । तत्कालीन कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग के प्रधान मि. सैडलर ने स्वीकार किया कि--- " मातृभाषा हिन्दी माध्यम द्वारा शिक्षा देने का यह सफ़ल प्रयोग है । "
स्वामी श्रद्धानन्द ने देखा कि धर्म प्रचार का कार्य भी बिना भाषा प्रचार के नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दू धर्म की सभी पुस्तकें हिन्दी और संस्कृत में हैं । उन दिनों पंजाब में उर्दू का प्रचार था । अत: स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने निवास स्थान जालंधर में हिन्दी के प्रचार का कार्य आरम्भ किया---- एक
उच्च पदस्थ और प्रसिद्ध व्यक्ति होते हुए भी वे वर्षों तक इकतारा बजाकर प्रात:काल जालन्धर की गलियों में भजनों व दोहों द्वारा हिन्दी का प्रचार करते रहे । ऐसा भाषा प्रेम व प्रचार की लगन थी उनमे । वे भारतीय महापुरुषों के इतिहास में उज्जवल नक्षत्र की तरह अजर अमर बनकर प्रकाशवान बने रहेंगे ।
जीवन के प्रारंभिक वर्षों में वे कुमार्गगामी थे किन्तु पत्नी के सेवा-सहिष्णुता, नम्रता , त्याग व उदारतापूर्ण व्यवहार से उनके जीवन की दिशा मुड़ी तो ऐसी मुड़ी कि फिर पीछे की ओर मुड़कर भी न देखा, अपनी समस्त दुर्बलताओं को तिलांजलि दे दी । अब उनका एक ही पथ था---- समाज सेवा
। एक ही लक्ष्य था-- भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना ।
उन दिनों आप ' आर्य सन्यासी ' के नाम से विख्यात थे । दिल्ली शहर में तब स्वामी जी का इतना प्रामुख्य था कि आपकी एक आवाज पर लाखों स्वयंसेवक अपनी जान हथेली पर लिये तैयार रहते थे | सब लोग उन्हें दिल्ली का बेताज बादशाह कहते थे ।
उन दिनों अंग्रेजी का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा था । हिन्दी मृतप्राय हो रही थी । राष्ट्र को जीवित रखना है तो राष्ट्र की एक जीवित भाषा भी होनी चाहिये । यह सोचकर उन्होने हिन्दी भाषा का जो प्रचार-प्रसार किया वह एक ऐतिहासिक प्रयत्न है ।
गुरुकुल-शिक्षा पद्धति स्वामी दयानन्द का स्वप्न था और उसे साकार किया स्वामी श्रद्धानन्द ने । कनखल के पास हिमालय की तराई में ' गुरुकुल काँगड़ी ' की स्थापना की । यहां नि:शुल्क शिक्षा देने की व्यवस्था की । मातृभाषा हिन्दी कों शिक्षा का माध्यम बनाने वाले वह प्रथम व्यक्ति थे । गुरुकुल के अनेक स्नातकों द्वारा विज्ञान, दर्शन तथा इतिहास विषय के मौलिक ग्रन्थों की रचना की गई, साथ ही पारिभाषिक शब्दों का निर्माण भी किया गया ।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडानल्ड ने महात्मा श्रद्धानन्द मे ईसा की आत्मा के दर्शन किये थे और इस गुरुकुल की स्थापना को ब्रिटिश सरकार तथा मैकाले शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध प्रथम सफल अभियान कहा । तत्कालीन कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग के प्रधान मि. सैडलर ने स्वीकार किया कि--- " मातृभाषा हिन्दी माध्यम द्वारा शिक्षा देने का यह सफ़ल प्रयोग है । "
स्वामी श्रद्धानन्द ने देखा कि धर्म प्रचार का कार्य भी बिना भाषा प्रचार के नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दू धर्म की सभी पुस्तकें हिन्दी और संस्कृत में हैं । उन दिनों पंजाब में उर्दू का प्रचार था । अत: स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने निवास स्थान जालंधर में हिन्दी के प्रचार का कार्य आरम्भ किया---- एक
उच्च पदस्थ और प्रसिद्ध व्यक्ति होते हुए भी वे वर्षों तक इकतारा बजाकर प्रात:काल जालन्धर की गलियों में भजनों व दोहों द्वारा हिन्दी का प्रचार करते रहे । ऐसा भाषा प्रेम व प्रचार की लगन थी उनमे । वे भारतीय महापुरुषों के इतिहास में उज्जवल नक्षत्र की तरह अजर अमर बनकर प्रकाशवान बने रहेंगे ।
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