' अन्याय एवं अनुचित के प्रति बलिदान की परम्परा जगाते रखने के लिए कोई न कोई बलि-वेदी पर आता ही रहना चाहिए । अन्यथा राष्ट्रीयता मिट जायेगी, देश निर्जीव हो जायेगा और समाज की तेजस्विता नष्ट हो जायेगी । उस समय जब अंग्रेज सरकार शिक्षा के कुठार से भारतीयता की जड़ें काटकर अंग्रेजियत बो रही थी, बाबूओं का निर्माण होने लगा था, तरुण-वर्ग को शिक्षा के माध्यम से अंग्रेजियत में रंगकर अपना मानसिक गुलाम बनाया जा रहा था, उस समय जहां एक ओर लोग भय से किंकर्तव्यविमूढ़ होकर अनचाहे भी सरकारी शिक्षा योजना में सहयोग कर रहे थे,
वहां एक आत्मविश्वासी युवक ऐसा भी था, जो प्राणों को दांव पर लगाकर भारतीयता की रक्षा के लिए संकल्पपूर्ण तैयारी कर रहा था, और वह व्यक्ति था ------ नवयुवक हंसराज ।
जों आगे चलकर----- महात्मा हंसराज के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
वे सरकार की इस शिक्षा प्रणाली के प्रारम्भ से ही विरोधी थे, किन्तु उन्होंने बहिष्कार नहीं किया बल्कि और अधिक मन लगाकर विद्दा प्राप्त की, अंग्रेजी पढ़ी । महात्मा हंसराज अंग्रेजी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसी के माध्यम से अंग्रेजों को समझने और उनकी चाल को विफल करना चाहते थे । उन्होंने भारतीय-धर्म और वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया । वे स्वामी दयानन्द की तीव्र तर्क पद्धति की अपने मस्तिष्क में प्रति-स्थापना कर चुके थे ।
महात्मा हंसराज ने गम्भीरता से विचार करके तथा समाज की मनोवृति का थीक-ठीक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि इस कुटिल शिक्षा नीति का विरोध किसी आन्दोलन या संघर्ष के रुप में करना उचित ना होगा । सरकारी शिक्षा प्रणाली को किसी समानान्तर शिक्षा प्रणाली से निरस्त करना ठीक होगा । उन्होंने बी. ए. पास कर लिया, अब उनका एक ही उद्देश्य था कि कोई ऐसी योजना बनाई जाये जिससे भारतीयों में स्वाभिमान और देश भक्ति की भावना जगाई जा सके तथा ईसाइयत से ओतप्रोत अंग्रेजियत के प्रति बढ़ती हुई आस्था को रोका जा सके |
विद्वान हंसराज ने लाहौर में स्थापित स्वामी दयानंद कालेज कमेटी में प्रवेश किया और एक छोटा शा विद्दालय स्थापित कर उसमें अवैतनिक शिक्षक बन गये । सरकार ने विद्दालय को न तो अनुदान दिया और न मान्यता दी । सुयोगय शिक्षक महात्मा हंसराज अपना काम करते रहे । आत्म अनुशासित और त्यागी शिक्षक के पढ़ाये हुए छात्र चमकते हुए हीरे की तरह निकलने लगे, छोटा सा स्कूल विस्तार पाने लगा । कुछ समय बाद उस संस्था को डी. ए. वी. स्कूल के नाम से ख्याति मिली बढ़ती लोकप्रियता के कारण सरकार ने भी स्कूल को मान्यता दे दी ।
महात्मा हंसराज की तपस्या फलीभूत हुई । डी. ए. वी. आन्दोलन के रूप में महात्मा हंसराज की देन अनुपम है जिसके लिए भारतीयता युग-युग तक उनकी ऋणी रहेगी ।
वहां एक आत्मविश्वासी युवक ऐसा भी था, जो प्राणों को दांव पर लगाकर भारतीयता की रक्षा के लिए संकल्पपूर्ण तैयारी कर रहा था, और वह व्यक्ति था ------ नवयुवक हंसराज ।
जों आगे चलकर----- महात्मा हंसराज के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
वे सरकार की इस शिक्षा प्रणाली के प्रारम्भ से ही विरोधी थे, किन्तु उन्होंने बहिष्कार नहीं किया बल्कि और अधिक मन लगाकर विद्दा प्राप्त की, अंग्रेजी पढ़ी । महात्मा हंसराज अंग्रेजी का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर उसी के माध्यम से अंग्रेजों को समझने और उनकी चाल को विफल करना चाहते थे । उन्होंने भारतीय-धर्म और वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया । वे स्वामी दयानन्द की तीव्र तर्क पद्धति की अपने मस्तिष्क में प्रति-स्थापना कर चुके थे ।
महात्मा हंसराज ने गम्भीरता से विचार करके तथा समाज की मनोवृति का थीक-ठीक अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि इस कुटिल शिक्षा नीति का विरोध किसी आन्दोलन या संघर्ष के रुप में करना उचित ना होगा । सरकारी शिक्षा प्रणाली को किसी समानान्तर शिक्षा प्रणाली से निरस्त करना ठीक होगा । उन्होंने बी. ए. पास कर लिया, अब उनका एक ही उद्देश्य था कि कोई ऐसी योजना बनाई जाये जिससे भारतीयों में स्वाभिमान और देश भक्ति की भावना जगाई जा सके तथा ईसाइयत से ओतप्रोत अंग्रेजियत के प्रति बढ़ती हुई आस्था को रोका जा सके |
विद्वान हंसराज ने लाहौर में स्थापित स्वामी दयानंद कालेज कमेटी में प्रवेश किया और एक छोटा शा विद्दालय स्थापित कर उसमें अवैतनिक शिक्षक बन गये । सरकार ने विद्दालय को न तो अनुदान दिया और न मान्यता दी । सुयोगय शिक्षक महात्मा हंसराज अपना काम करते रहे । आत्म अनुशासित और त्यागी शिक्षक के पढ़ाये हुए छात्र चमकते हुए हीरे की तरह निकलने लगे, छोटा सा स्कूल विस्तार पाने लगा । कुछ समय बाद उस संस्था को डी. ए. वी. स्कूल के नाम से ख्याति मिली बढ़ती लोकप्रियता के कारण सरकार ने भी स्कूल को मान्यता दे दी ।
महात्मा हंसराज की तपस्या फलीभूत हुई । डी. ए. वी. आन्दोलन के रूप में महात्मा हंसराज की देन अनुपम है जिसके लिए भारतीयता युग-युग तक उनकी ऋणी रहेगी ।
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