' बाबा राघवदास वाणी और कृतत्व दोनों विधियों से अपने देशवासियों को वैराग्य और अपरिग्रह का उपदेश देते रहे | पर न तो उन्होंने कभी किसी को घरबार छोड़कर साधु बन जाने की प्रेरणा दी और न रोजगार व्यवसाय से मुँह मोड़कर कमण्डलु और लँगोटी ग्रहण करने की | यद्दपि वे अपनी परिस्थिति और मनोवृति के अनुकूल साधु बन गये थे, पर उनकी द्रष्टि में ये बातें केवल बाह्य प्रतीक मात्र थीं, वे अच्छी तरह जानते थे कि यद्दपि गांधीजी अंत तक गृहस्थ के रूप में ही रहे, कभी किसी से दीक्षा लेकर साधु-सन्यासी नहीं बने, पर उस समय उनसे बढ़कर त्यागी, तपस्वी, साधु और कोई न था |
बाबा राघवदास (1896-1958 ) का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था, पर उत्तर प्रदेश में रहने के कारण उन्होंने हिन्दी अच्छी सीख ली थी | उन्होंने सदा से शुद्ध हिन्दी का पक्ष लिया और उसके लिए सदैव संघर्ष करते रहे । इस संबंध में उन्होंने स्वयं लिखा है---- " 1948 की जनगणना के समय वे बनारस जेल में थे, उस जनगणना में उत्तर प्रदेश ने अपनी भाषा को उर्दू या हिन्दुस्तानी लिखाया जो अकर्मण्यता का सूचक है , वहां गणक ने मेरा नाम लिखकर ,मातृभाषा के खाने में हिन्दुस्तानी लिखा ( उस समय अनेक उर्दू के पक्षपाती ' हिन्दुस्तानी ' के नाम से उसी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने का आन्दोलन कर रहे थे ) "
इसका उन्होंने बहुत विरोध किया और लिखा---- " यदि उत्तर प्रदेश में दम नहीं है तो महाराष्ट्रीय होते हुए भी राष्ट्रभाषा हिन्दी की राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण रखने के लिए मैं मर मिटूँगा "
राघवदास जी ने भारत के सभी प्रान्तों में पर्याप्त समय तक टिककर हिन्दी प्रचार में सक्रिय भाग लिया सिंध, उड़ीसा, बंगाल में उन्होंने विधिवत शिक्षा संस्था स्थापित करके सैकड़ों व्यक्तियों को हिन्दी सिखाई, आसम में वे काफी समय तक कार्य करते रहे ।
बाबा राघवदास (1896-1958 ) का जन्म महाराष्ट्र में हुआ था, पर उत्तर प्रदेश में रहने के कारण उन्होंने हिन्दी अच्छी सीख ली थी | उन्होंने सदा से शुद्ध हिन्दी का पक्ष लिया और उसके लिए सदैव संघर्ष करते रहे । इस संबंध में उन्होंने स्वयं लिखा है---- " 1948 की जनगणना के समय वे बनारस जेल में थे, उस जनगणना में उत्तर प्रदेश ने अपनी भाषा को उर्दू या हिन्दुस्तानी लिखाया जो अकर्मण्यता का सूचक है , वहां गणक ने मेरा नाम लिखकर ,मातृभाषा के खाने में हिन्दुस्तानी लिखा ( उस समय अनेक उर्दू के पक्षपाती ' हिन्दुस्तानी ' के नाम से उसी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने का आन्दोलन कर रहे थे ) "
इसका उन्होंने बहुत विरोध किया और लिखा---- " यदि उत्तर प्रदेश में दम नहीं है तो महाराष्ट्रीय होते हुए भी राष्ट्रभाषा हिन्दी की राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण रखने के लिए मैं मर मिटूँगा "
राघवदास जी ने भारत के सभी प्रान्तों में पर्याप्त समय तक टिककर हिन्दी प्रचार में सक्रिय भाग लिया सिंध, उड़ीसा, बंगाल में उन्होंने विधिवत शिक्षा संस्था स्थापित करके सैकड़ों व्यक्तियों को हिन्दी सिखाई, आसम में वे काफी समय तक कार्य करते रहे ।
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