भगवान बुद्ध ने मनुष्यों को जिस स्वाभाविक धर्म का उपदेश दिया उसका आधार मुख्य रूप से
मन की भावनाओं पर था । उनका मत था कि बाह्य आचरण में स्थिरता नहीं रहती, वह देश-काल के अनुसार बदलता रहता है । यदि मन स्वच्छ है, अन्त:करण पवित्र है तो व्यक्ति किसी भी वर्ण का हो, संत, सज्जन, तपस्वी हो सकता है । आत्मनिरीक्षण तथा आत्मसुधार कर के ही स्रष्टि को सुन्दर बना सकते हैं ।
श्रावस्ती के धर्म दीक्षा समारोह में वक्कलि ने भगवान बुद्ध के प्रथम दर्शन किये । उनके रूप, लावण्य, उनकी अद्धितीय तेजस्विता, सुगठित देह तथा मुख से प्रकट होने वाली सौम्यता ने वक्कलि का मन मोह लिया । उसने अनुभव किया की यही तो वह मणियां थीं, जिंकी उसे खोज
थी । उसने जरा भी विलम्ब नहीं किया, उसी दिन बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली ।
भगवान बुद्ध ने दीक्षा तो दे दी किन्तु यह बात उनसे छिपी न रही कि---- वह नियमित उपासना नही करता, आत्मनिरीक्षण और आत्मसुधार की आवश्यकता उसने नहीं समझी और परमार्थ कार्यों में उसकी कोई रूचि नहीं है । वह नियमित संघ गोष्ठी में सम्मिलित अवश्य होता है किन्तु उसकी रुचि प्रवचनों में नहीं थी, वहां भी वह बुद्धदेव के सौन्दर्य की ही चर्चा करता रहता ।
समय पाकर एक दिन उसने तथागत से पूछ ही लिया----- " भगवन ! मुझे भी ऐसी योग साधना बताइये जिससे मैं आप जितना ही सुन्दर हो जाऊं, ऐसी ही तेजस्विता मुझमे आ जाये, आप जैसा नवयौवन मुझमे भी फूट पड़े, जिस दिन यह हो जायेगा, उस दिन मैं आपके धर्म का संसार भर में प्रचार करूँगा, जब तक मेरे पास उक्त आकर्षण नहीं लोग मेरी बात क्यों सुनेगें ?
तथागत ने कहा---- वक्कलि ! तुम्हे शरीर को सुडौल बनाने वाले आसन बताये जा सकते हैं, लावण्य जिस प्राण का प्रस्फुटन है, उसके विकास के प्राणायाम भी बताये जा सकते हैं किन्तु यह सब भी क्षणभंगुर व नाशवान है । यदि तुम्हे जीवन का मर्म समझ में आ जाए कि आत्मसुधार करना, आत्मोत्कर्ष करना और परमार्थ कार्य करना ही प्रगति और प्रसन्नता का मूल आधार है तो तेजस्विता का वरदान तुम्हे स्वत: ही मिल जायेगा | धार्मिक आचरण की उपेक्षा कर के तुम यदि उसे पा भी जाओ तो देर तक स्थिर न रख सकोगे ।
उस दिन से वक्कलि ने आत्म निरीक्षण और आत्मसुधार का क्रम अपनाया तो एक दिन वह महान भिक्षु बना ।
मन की भावनाओं पर था । उनका मत था कि बाह्य आचरण में स्थिरता नहीं रहती, वह देश-काल के अनुसार बदलता रहता है । यदि मन स्वच्छ है, अन्त:करण पवित्र है तो व्यक्ति किसी भी वर्ण का हो, संत, सज्जन, तपस्वी हो सकता है । आत्मनिरीक्षण तथा आत्मसुधार कर के ही स्रष्टि को सुन्दर बना सकते हैं ।
श्रावस्ती के धर्म दीक्षा समारोह में वक्कलि ने भगवान बुद्ध के प्रथम दर्शन किये । उनके रूप, लावण्य, उनकी अद्धितीय तेजस्विता, सुगठित देह तथा मुख से प्रकट होने वाली सौम्यता ने वक्कलि का मन मोह लिया । उसने अनुभव किया की यही तो वह मणियां थीं, जिंकी उसे खोज
थी । उसने जरा भी विलम्ब नहीं किया, उसी दिन बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली ।
भगवान बुद्ध ने दीक्षा तो दे दी किन्तु यह बात उनसे छिपी न रही कि---- वह नियमित उपासना नही करता, आत्मनिरीक्षण और आत्मसुधार की आवश्यकता उसने नहीं समझी और परमार्थ कार्यों में उसकी कोई रूचि नहीं है । वह नियमित संघ गोष्ठी में सम्मिलित अवश्य होता है किन्तु उसकी रुचि प्रवचनों में नहीं थी, वहां भी वह बुद्धदेव के सौन्दर्य की ही चर्चा करता रहता ।
समय पाकर एक दिन उसने तथागत से पूछ ही लिया----- " भगवन ! मुझे भी ऐसी योग साधना बताइये जिससे मैं आप जितना ही सुन्दर हो जाऊं, ऐसी ही तेजस्विता मुझमे आ जाये, आप जैसा नवयौवन मुझमे भी फूट पड़े, जिस दिन यह हो जायेगा, उस दिन मैं आपके धर्म का संसार भर में प्रचार करूँगा, जब तक मेरे पास उक्त आकर्षण नहीं लोग मेरी बात क्यों सुनेगें ?
तथागत ने कहा---- वक्कलि ! तुम्हे शरीर को सुडौल बनाने वाले आसन बताये जा सकते हैं, लावण्य जिस प्राण का प्रस्फुटन है, उसके विकास के प्राणायाम भी बताये जा सकते हैं किन्तु यह सब भी क्षणभंगुर व नाशवान है । यदि तुम्हे जीवन का मर्म समझ में आ जाए कि आत्मसुधार करना, आत्मोत्कर्ष करना और परमार्थ कार्य करना ही प्रगति और प्रसन्नता का मूल आधार है तो तेजस्विता का वरदान तुम्हे स्वत: ही मिल जायेगा | धार्मिक आचरण की उपेक्षा कर के तुम यदि उसे पा भी जाओ तो देर तक स्थिर न रख सकोगे ।
उस दिन से वक्कलि ने आत्म निरीक्षण और आत्मसुधार का क्रम अपनाया तो एक दिन वह महान भिक्षु बना ।
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