वर्धा के प्रसिद्ध सेठ जमनालाल बजाज जो उस समय 'रायबहादुर ' भी थे , सच्चे आस्तिक थे, ऐसे विषयों में वे श्रद्धा के साथ विवेक से काम लेते थे | उनका कहना था कि हमको गौरक्षा का नहीं गौसेवा का कार्यक्रम अपनाना चाहिए । गौ- पालन कों आर्थिक द्रष्टि से इतना लाभदायक बना दिया जाये कि फिर कोई उसे मारने का विचार ही न करे ।
उन्होंने कहा था कि यदि गौ को विकास करने का उचित अवसर दिया जाये, उसकी देख-रेख उचित तरीके से की जाये तो उसको आर्थिक द्रष्टि से स्वावलम्बी बनाया जा सकता है । तब कोई भी चाहे वह गाय को माता के तुल्य पूजनीय मानता हो या न मानता हो तो भी वह उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता ।
यूरोप और अमेरिका के निवासी हमारी तरह गौ-पूजक नहीं हैं और न ही वे मरने के बाद गाय के द्वारा वैतरणी पार करने की कथा में विश्वास रखते हैं, पर क्योंकि वहां की गायें प्रतिदिन 20-25 किलो दूध देती हैं, इसलिए वे उनको बड़े यत्न से पालते-पोसते हैं और आराम के साथ रखते हैं ।
उनके लिए गौसेवा का अर्थ था---- मानवता की सेवा । जब गायों की नस्ल सुधरेगी तो खेती सुधरेगी और मनुष्यों को अच्छा भोजन प्राप्त होगा |
उन्होंने सेवाग्राम के समीप ' गोपुरी ' की स्थापना की और अपनी विशाल हवेली को छोड़कर वहीँ एक कुटी बनाकर रहने लगे, वहां वे गायों को स्वयं स्नान कराते, उनका स्थान साफ करते, चारा दाने व दुहने की व्यवस्था करते । गौपालन के आधुनिक साधनों का भी उन्होंने अध्ययन किया ।
गौरक्षा के संबंध में श्री गंगारामजी जो प्रसिद्ध इंजीनियर थे, पटियाला रियासत को सुन्दर व स्वच्छ बनाने के लिये कई योजनाएं कार्यान्वित की--- उनका कहना था कि ' भेड़-बकरियों ' की अपेक्षा गायें अधिक क्यों काटी जाती हैं ? यह एक शुद्ध आर्थिक प्रश्न है । ---- गाय के मांस को सस्ते दामो पर बेचने पर भी कसाई को अधिक लाभ होता है क्योंकि केवल खाल, सींग और खुरों से ही उसको काफी आमदनी हो जाती है । यदि गाय-बैलों की खाल, सींगों की कीमत घटा दी जाये, कसाई को, व्यापारी को कोई फायदा न हो तो प्रत्यक्ष ढंग से गायों को बचाया जा सकता है
उन्होंने कहा था कि यदि गौ को विकास करने का उचित अवसर दिया जाये, उसकी देख-रेख उचित तरीके से की जाये तो उसको आर्थिक द्रष्टि से स्वावलम्बी बनाया जा सकता है । तब कोई भी चाहे वह गाय को माता के तुल्य पूजनीय मानता हो या न मानता हो तो भी वह उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता ।
यूरोप और अमेरिका के निवासी हमारी तरह गौ-पूजक नहीं हैं और न ही वे मरने के बाद गाय के द्वारा वैतरणी पार करने की कथा में विश्वास रखते हैं, पर क्योंकि वहां की गायें प्रतिदिन 20-25 किलो दूध देती हैं, इसलिए वे उनको बड़े यत्न से पालते-पोसते हैं और आराम के साथ रखते हैं ।
उनके लिए गौसेवा का अर्थ था---- मानवता की सेवा । जब गायों की नस्ल सुधरेगी तो खेती सुधरेगी और मनुष्यों को अच्छा भोजन प्राप्त होगा |
उन्होंने सेवाग्राम के समीप ' गोपुरी ' की स्थापना की और अपनी विशाल हवेली को छोड़कर वहीँ एक कुटी बनाकर रहने लगे, वहां वे गायों को स्वयं स्नान कराते, उनका स्थान साफ करते, चारा दाने व दुहने की व्यवस्था करते । गौपालन के आधुनिक साधनों का भी उन्होंने अध्ययन किया ।
गौरक्षा के संबंध में श्री गंगारामजी जो प्रसिद्ध इंजीनियर थे, पटियाला रियासत को सुन्दर व स्वच्छ बनाने के लिये कई योजनाएं कार्यान्वित की--- उनका कहना था कि ' भेड़-बकरियों ' की अपेक्षा गायें अधिक क्यों काटी जाती हैं ? यह एक शुद्ध आर्थिक प्रश्न है । ---- गाय के मांस को सस्ते दामो पर बेचने पर भी कसाई को अधिक लाभ होता है क्योंकि केवल खाल, सींग और खुरों से ही उसको काफी आमदनी हो जाती है । यदि गाय-बैलों की खाल, सींगों की कीमत घटा दी जाये, कसाई को, व्यापारी को कोई फायदा न हो तो प्रत्यक्ष ढंग से गायों को बचाया जा सकता है
बहुत ही उम्दा भावाभिव्यक्ति....
ReplyDeleteआभार!
इसी प्रकार अपने अमूल्य विचारोँ से अवगत कराते रहेँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।