डॉ. अल्वर्ट श्वाइत्जर ने अफ्रीका में लाम्वार्ने नामक स्थान पर अपना चिकित्सालय खोला | उनका कहना था कि--- " अभी तक मैं एक धर्म-शिक्षक के रूप में शब्दों द्वारा आत्मदान करता रहा था ।
मैं धर्माचार्य ना बनकर चिकित्सक इसलिए बना कि बिना बोले सेवा कर सकूँ । यह प्रेम के व्यावहारिक प्रयोग का क्षेत्र है । अपनी इस मौन प्रधान-सेवा कों मैं आध्यात्मिक साधना ही मानता हू । उन्होंने अपना सारा जीवन हब्शियों की सेवा में लगा दिया । उनकी करुणा, दया और सेवा-भावना की गहराई को समझने वाले उन्हें ' बोधिसत्व ' की संज्ञा देते हैं ।
डॉ. श्वाइत्जर के आश्रम में जहाँ एक ओर रोगी हब्शियों की चारपाई पड़ी रहती थीं, वहीँ दूसरी ओर बहुत से पशु-पक्षी भी रह रहे थे । हिरण, चीतर, गुरिल्ला, चिम्पांजी, बतख, मुर्गी, उल्लू आदि न जाने कितने पशु-पक्षी उनके परिवार के सदस्य बने हुये थे । यह सब पशु-पक्षी वही थे जो एक बार रोगी होने के कारण जंगल से उपचार के लिए डॉ. श्वाइत्जर के पास लाए गये थे और फिर वे अपने प्रेमी सेवक को छोड़कर दुबारा जंगल में नहीं गये ।
सन्त श्वाइत्जर को मानव जाति की तरह अन्य जीवों से भी प्यार था । वे स्वयं तो मांस नहीं खाते थे, उन्होंने हब्शियों को भी कभी किसी पशु-पक्षी को मारने नहीं दिया ।
मैं धर्माचार्य ना बनकर चिकित्सक इसलिए बना कि बिना बोले सेवा कर सकूँ । यह प्रेम के व्यावहारिक प्रयोग का क्षेत्र है । अपनी इस मौन प्रधान-सेवा कों मैं आध्यात्मिक साधना ही मानता हू । उन्होंने अपना सारा जीवन हब्शियों की सेवा में लगा दिया । उनकी करुणा, दया और सेवा-भावना की गहराई को समझने वाले उन्हें ' बोधिसत्व ' की संज्ञा देते हैं ।
डॉ. श्वाइत्जर के आश्रम में जहाँ एक ओर रोगी हब्शियों की चारपाई पड़ी रहती थीं, वहीँ दूसरी ओर बहुत से पशु-पक्षी भी रह रहे थे । हिरण, चीतर, गुरिल्ला, चिम्पांजी, बतख, मुर्गी, उल्लू आदि न जाने कितने पशु-पक्षी उनके परिवार के सदस्य बने हुये थे । यह सब पशु-पक्षी वही थे जो एक बार रोगी होने के कारण जंगल से उपचार के लिए डॉ. श्वाइत्जर के पास लाए गये थे और फिर वे अपने प्रेमी सेवक को छोड़कर दुबारा जंगल में नहीं गये ।
सन्त श्वाइत्जर को मानव जाति की तरह अन्य जीवों से भी प्यार था । वे स्वयं तो मांस नहीं खाते थे, उन्होंने हब्शियों को भी कभी किसी पशु-पक्षी को मारने नहीं दिया ।
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