मनुष्य की प्रतिभा और योग्यता की महत्ता तभी है जब उसका सदुपयोग किया जाए ।
सूफी अम्बा प्रसाद ने अपनी लेखनी का उपयोग एक महान प्रयोजन के लिए किया । इनका जन्म 1862 में मुरादाबाद में हुआ था । उन्होंने देखा कि देशवासी किस प्रकार अत्याचारों से पीड़ित हैं, साधारण जनता को जमींदार लूटते हैं और अंग्रेज हम पर शासन ही नहीं करते हमें नीचा समझते हैं
भारतवासी इतना सहते हुए भी चुप हैं, जागते नहीं, प्रतिकार के लिए उठ खड़े नहीं होते । उन्हें जगाने का माध्यम उन्होंने पत्रकारिता चुना ।
जब ये पैदा हुए थे तब इनके एक ही हाथ था । इस एक बायें हाथ से ही उन्होंने आगे चलकर ऐसे जौहर दिखाए जिन्हें देखकर दो हाथ वाले भी दांतों तले अंगुली दबाते थे ।
' जैम उल इदुम ' उर्दू पत्र के संपादक के रूप में वे एक नक्षत्र की तरह भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के आकाश में उदित हुए । वे अच्छे लेखक थे । विदेशी शासन और जमींदारों पर उनकी लेखनी की मार बहुत भयानक होती थी ।
' जैम उल इदुम ' में प्रकाशित एक लेख के आधार पर इन पर सरकार ने राजद्रोह का अभियोग लगाया और न्यायालय ने इन्हें डेढ़ वर्ष के कठोर करावास की सजा दी । हैदराबाद के निजाम इनकी विद्वता के कायल थे, सजा पूरी हो जाने के बाद उन्होंने इनसे अपने यहां रहने का आग्रह किया । अंग्रेज सरकार भी इन्हें एक हजार रूपये मासिक वेतन पर अपने जासूसी विभाग में रखना चाहती थी । उन दिनों की इतनी बड़ी रकम उन्होने ठुकरा दी । वे कहा करते थे---- ' अपने ही स्वार्थ के लिए तो पशु भी जी लेते हैं । मनुष्य होकर जो दूसरों के दुःख-दर्द का ध्यान न रखे तो वह बिना सींग-पूंछ का जानवर ही तो है
इन सब प्रलोभनों से उनका चित कभी डांवाडोल नहीं हुआ और उन्होंने जेल से छूटते ही इतिहास प्रसिद्ध क्रांतिकारी अजीतसिंह के साथ मिलकर ' पेशवा ' उर्दू पत्र निकाला , ' पेशवा ' के माध्यम से इन क्रांतिकारियों की आवाज जन-जन के अन्तर में सोई मर्दानगी, आदर्शवादिता तथा राष्ट्र प्रेम जगा रही थी । उनके सम्पादकीय बेजोड़ होते थे, उनकी लेखनी में जादू था, जनता जागने लगी ।
उनका यह जोश व देशप्रेम केवल लेखन और भाषण तक ही सीमित नहीं था । वे अव्वल दर्जे के संवाददाता तथा गुप्तचर भी थे । 1919 की बात है----- अम्बाला का कमिश्नर जनता पर बहुत अत्याचार करता था, ये गूँगे-बहरे बनकर उसके यहां नौकरी करने लगे । उन्हें खाने की मेज पर मक्खियाँ उड़ाने का काम दिया गया, उस समय प्राय: वह कमिश्नर अपने सहायकों से परामर्श किया करता था, इसकी रिपोर्ट वे ' अ मृत बाजार पत्रिका ' के लिए भेज देते थे । कई महीनो तक वे गूँगे-बहरे बनकर कमिश्नर की आँखों में धूल झोंकते रहे, कमिश्नर अपनी इन बातों को पत्रिका में देखकर हैरान होता था, सूफी साहब पर वह कभी शक न कर सका ।
भारत में रहना कठिन हो गया तो वे ईरान चले गये और वहां ' आबे हयात ' पत्र का संपादन किया । प्रथम विश्वयुद्ध में वे ईरान की तरफ से लड़े, अंग्रेजों ने इन्हें पकड़ लिया और सैनिक न्यायालय ने इन्हें गोली मारने की सजा सुनाई ।
मृत्युदंड देने के लिए जब जेलर ने इन्हें पुकारा---- " सूफी साहब चलिए आपका समय हों गया । " कोठरी खोली और देखा--- बन्दी पद्मासन लगाये बैठा था नीरव, निस्पन्द, निष्प्राण । उनके गोली मारने से पहले ही सूफी साहब अपना नश्वर शरीर छोड़ गये | देशभक्त सूफी अम्बा प्रसाद--- शरीर को वस्त्रों की तरह त्याग देने वाले जीवन्त आत्मा थे ।
सूफी अम्बा प्रसाद ने अपनी लेखनी का उपयोग एक महान प्रयोजन के लिए किया । इनका जन्म 1862 में मुरादाबाद में हुआ था । उन्होंने देखा कि देशवासी किस प्रकार अत्याचारों से पीड़ित हैं, साधारण जनता को जमींदार लूटते हैं और अंग्रेज हम पर शासन ही नहीं करते हमें नीचा समझते हैं
भारतवासी इतना सहते हुए भी चुप हैं, जागते नहीं, प्रतिकार के लिए उठ खड़े नहीं होते । उन्हें जगाने का माध्यम उन्होंने पत्रकारिता चुना ।
जब ये पैदा हुए थे तब इनके एक ही हाथ था । इस एक बायें हाथ से ही उन्होंने आगे चलकर ऐसे जौहर दिखाए जिन्हें देखकर दो हाथ वाले भी दांतों तले अंगुली दबाते थे ।
' जैम उल इदुम ' उर्दू पत्र के संपादक के रूप में वे एक नक्षत्र की तरह भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के आकाश में उदित हुए । वे अच्छे लेखक थे । विदेशी शासन और जमींदारों पर उनकी लेखनी की मार बहुत भयानक होती थी ।
' जैम उल इदुम ' में प्रकाशित एक लेख के आधार पर इन पर सरकार ने राजद्रोह का अभियोग लगाया और न्यायालय ने इन्हें डेढ़ वर्ष के कठोर करावास की सजा दी । हैदराबाद के निजाम इनकी विद्वता के कायल थे, सजा पूरी हो जाने के बाद उन्होंने इनसे अपने यहां रहने का आग्रह किया । अंग्रेज सरकार भी इन्हें एक हजार रूपये मासिक वेतन पर अपने जासूसी विभाग में रखना चाहती थी । उन दिनों की इतनी बड़ी रकम उन्होने ठुकरा दी । वे कहा करते थे---- ' अपने ही स्वार्थ के लिए तो पशु भी जी लेते हैं । मनुष्य होकर जो दूसरों के दुःख-दर्द का ध्यान न रखे तो वह बिना सींग-पूंछ का जानवर ही तो है
इन सब प्रलोभनों से उनका चित कभी डांवाडोल नहीं हुआ और उन्होंने जेल से छूटते ही इतिहास प्रसिद्ध क्रांतिकारी अजीतसिंह के साथ मिलकर ' पेशवा ' उर्दू पत्र निकाला , ' पेशवा ' के माध्यम से इन क्रांतिकारियों की आवाज जन-जन के अन्तर में सोई मर्दानगी, आदर्शवादिता तथा राष्ट्र प्रेम जगा रही थी । उनके सम्पादकीय बेजोड़ होते थे, उनकी लेखनी में जादू था, जनता जागने लगी ।
उनका यह जोश व देशप्रेम केवल लेखन और भाषण तक ही सीमित नहीं था । वे अव्वल दर्जे के संवाददाता तथा गुप्तचर भी थे । 1919 की बात है----- अम्बाला का कमिश्नर जनता पर बहुत अत्याचार करता था, ये गूँगे-बहरे बनकर उसके यहां नौकरी करने लगे । उन्हें खाने की मेज पर मक्खियाँ उड़ाने का काम दिया गया, उस समय प्राय: वह कमिश्नर अपने सहायकों से परामर्श किया करता था, इसकी रिपोर्ट वे ' अ मृत बाजार पत्रिका ' के लिए भेज देते थे । कई महीनो तक वे गूँगे-बहरे बनकर कमिश्नर की आँखों में धूल झोंकते रहे, कमिश्नर अपनी इन बातों को पत्रिका में देखकर हैरान होता था, सूफी साहब पर वह कभी शक न कर सका ।
भारत में रहना कठिन हो गया तो वे ईरान चले गये और वहां ' आबे हयात ' पत्र का संपादन किया । प्रथम विश्वयुद्ध में वे ईरान की तरफ से लड़े, अंग्रेजों ने इन्हें पकड़ लिया और सैनिक न्यायालय ने इन्हें गोली मारने की सजा सुनाई ।
मृत्युदंड देने के लिए जब जेलर ने इन्हें पुकारा---- " सूफी साहब चलिए आपका समय हों गया । " कोठरी खोली और देखा--- बन्दी पद्मासन लगाये बैठा था नीरव, निस्पन्द, निष्प्राण । उनके गोली मारने से पहले ही सूफी साहब अपना नश्वर शरीर छोड़ गये | देशभक्त सूफी अम्बा प्रसाद--- शरीर को वस्त्रों की तरह त्याग देने वाले जीवन्त आत्मा थे ।
No comments:
Post a Comment