लोकमान्य श्री बालगंगाधर तिलक ( 1856-1920 ) के जीवन में धार्मिकता, सामाजिकता और राजनीतिकता का इस प्रकार समन्वय हुआ था कि वर्तमान युग में वह भारतीय जनता के लिए सबसे बड़ा आदर्श है ।
उन्होंने लिखकर और कार्यरूप में उदाहरण उपस्थित करके लोगों को यही शिक्षा दी कि मनुष्य का प्रमुख धर्म यही है कि वह प्रत्येक अवस्था में ' कर्तव्य-पालन ' पर आरूढ़ रहे । वास्तविक ' धर्म ' वही है---- जिसके द्वारा जीवन के सब अंगों का समुचित विकास हो और प्रत्येक परिस्थिति का मुकाबला करने को तैयार रहा जाये ।
सामाजिक तथा राष्ट्रीय प्रगति के लिए वे जनता को तरह-तरह से प्रेरणा देते रहते थे, इसलिए विदेशी सरकार को उनसे खतरा महसूस होता था । 1907-08 में जब तिलकजी ने कांग्रेस को सरकार के मुकाबले मे क्रांतिकारी कार्यक्रम अपनाने की प्रेरणा दी तो सरकार बौखला गई और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर छह साल के देश निकाले का दण्ड दे दिया । उनको बर्मा की मांडले जेल में रखा गया जहां न कोई इनकी भाषा समझने वाला था और न उनसे किसी प्रकार परिचित ।
लोकमान्य ने सब तरफ से अपना ध्यान हटा लिया और ' गीता ' का अध्ययन आरम्भ किया । छह साल में उसका एक ऐसा प्रेरणाप्रद-भाष्य तैयार किया जिससे भारतीय जनता स्वयं ही कर्तव्य-पालन की प्रेरणा प्राप्त करती रह सकती थी ।
लोकमान्य का ' गीता-रहस्य ' उनके जेल से छुटकारे के बाद जब प्रकाशित हुआ तो उसका प्रचार आंधी-तूफान कि तरह बढ़ा और आज कई साल हो जाने पर भी उसके महत्व में कमी नहीं आई है ।
उन्होंने लिखकर और कार्यरूप में उदाहरण उपस्थित करके लोगों को यही शिक्षा दी कि मनुष्य का प्रमुख धर्म यही है कि वह प्रत्येक अवस्था में ' कर्तव्य-पालन ' पर आरूढ़ रहे । वास्तविक ' धर्म ' वही है---- जिसके द्वारा जीवन के सब अंगों का समुचित विकास हो और प्रत्येक परिस्थिति का मुकाबला करने को तैयार रहा जाये ।
सामाजिक तथा राष्ट्रीय प्रगति के लिए वे जनता को तरह-तरह से प्रेरणा देते रहते थे, इसलिए विदेशी सरकार को उनसे खतरा महसूस होता था । 1907-08 में जब तिलकजी ने कांग्रेस को सरकार के मुकाबले मे क्रांतिकारी कार्यक्रम अपनाने की प्रेरणा दी तो सरकार बौखला गई और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर छह साल के देश निकाले का दण्ड दे दिया । उनको बर्मा की मांडले जेल में रखा गया जहां न कोई इनकी भाषा समझने वाला था और न उनसे किसी प्रकार परिचित ।
लोकमान्य ने सब तरफ से अपना ध्यान हटा लिया और ' गीता ' का अध्ययन आरम्भ किया । छह साल में उसका एक ऐसा प्रेरणाप्रद-भाष्य तैयार किया जिससे भारतीय जनता स्वयं ही कर्तव्य-पालन की प्रेरणा प्राप्त करती रह सकती थी ।
लोकमान्य का ' गीता-रहस्य ' उनके जेल से छुटकारे के बाद जब प्रकाशित हुआ तो उसका प्रचार आंधी-तूफान कि तरह बढ़ा और आज कई साल हो जाने पर भी उसके महत्व में कमी नहीं आई है ।
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