स्वामीजी के जीवन का सर्वोपरि उद्देश्य हिन्दू जाति में प्रचलित हानिकारक विश्वासों, कुरीतियों और रूढ़ियों को मिटा कर उनके स्थान पर समयोचित लाभकारी प्रथाओं का प्रचार करना था ।
धर्म-सुधार का कार्य करते हुए स्वामीजी के सम्मुख अनेक प्रलोभन आये, पर वे कभी अपने सिद्धांतो से टस से मस नहीं हुए । एक दिन एकान्त में उदयपुर के महाराणा उनसे मिले तो कहने लगे----
" स्वामीजी ! आप मूर्तिपूजा का खंडन छोड़ दें तो उदयपुर के एकलिंग महादेव के मंदिर की गद्दी आपकी ही है । वैसे हमारा समस्त राज्य ही उस मंदिर में समर्पित है पर मंदिर में राज्य का जितना भाग लगा हुआ है उसको भी लाखों रूपये की आय है । इतना भारी ऐश्वर्य आपका हो जायेगा ओर समस्त राज्य के आप गुरु माने जायेंगे । "
यह सुनते ही स्वामीजी रोषपूर्वक बोले ----- " महराज ! आप मुझे तुच्छ प्रलोभन दिखाकर परमात्मा से विमुख करना चाहते हैं, उसकी आज्ञा भंग कराना चाहते हैं ? राणाजी ! आपके जिस छोटे से राज्य और मंदिर से मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ वह मुझे अनन्त ईश्वर की आज्ञा भंग करने के लिए विवश नहीं कर सकता । फिर मुझसे ऐसे शब्द मत कहियेगा । मेरी धर्म की ध्रुव धारणा को धराधाम और आकाश की कोई वस्तु डगमगा नहीं सकती । "
स्वामी दयानन्द जी को इस प्रकार के प्रलोभन जीवन में अनेक बार दिये गए । काशी नरेश ने उनसे भारत प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव किया था ।
गुजरात के एक वकील ने उनसे कहा कि आप मूर्तिपूजा का विरोध करना छोड़ दें तो हम आपको शंकरजी का अवतार मानने लगें । और भी अनेक स्थानों में उनसे वैभवशाली मन्दिरों और मठों का अध्यक्ष बनकर रहने का आग्रह किया गया ।
स्वामीजी ने सदैव यही उत्तर दिया कि मेरा कार्य देश और जाति की सेवा करके सुधार करना है न कि धन-सम्पति इकट्ठी करके सांसारिक भोगों में लिप्त रहना । मैं परमात्मा के दिखाये श्रेष्ठ मार्ग से कभी विमुख नहीं हो सकता ।
धर्म-सुधार का कार्य करते हुए स्वामीजी के सम्मुख अनेक प्रलोभन आये, पर वे कभी अपने सिद्धांतो से टस से मस नहीं हुए । एक दिन एकान्त में उदयपुर के महाराणा उनसे मिले तो कहने लगे----
" स्वामीजी ! आप मूर्तिपूजा का खंडन छोड़ दें तो उदयपुर के एकलिंग महादेव के मंदिर की गद्दी आपकी ही है । वैसे हमारा समस्त राज्य ही उस मंदिर में समर्पित है पर मंदिर में राज्य का जितना भाग लगा हुआ है उसको भी लाखों रूपये की आय है । इतना भारी ऐश्वर्य आपका हो जायेगा ओर समस्त राज्य के आप गुरु माने जायेंगे । "
यह सुनते ही स्वामीजी रोषपूर्वक बोले ----- " महराज ! आप मुझे तुच्छ प्रलोभन दिखाकर परमात्मा से विमुख करना चाहते हैं, उसकी आज्ञा भंग कराना चाहते हैं ? राणाजी ! आपके जिस छोटे से राज्य और मंदिर से मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ वह मुझे अनन्त ईश्वर की आज्ञा भंग करने के लिए विवश नहीं कर सकता । फिर मुझसे ऐसे शब्द मत कहियेगा । मेरी धर्म की ध्रुव धारणा को धराधाम और आकाश की कोई वस्तु डगमगा नहीं सकती । "
स्वामी दयानन्द जी को इस प्रकार के प्रलोभन जीवन में अनेक बार दिये गए । काशी नरेश ने उनसे भारत प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर का अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव किया था ।
गुजरात के एक वकील ने उनसे कहा कि आप मूर्तिपूजा का विरोध करना छोड़ दें तो हम आपको शंकरजी का अवतार मानने लगें । और भी अनेक स्थानों में उनसे वैभवशाली मन्दिरों और मठों का अध्यक्ष बनकर रहने का आग्रह किया गया ।
स्वामीजी ने सदैव यही उत्तर दिया कि मेरा कार्य देश और जाति की सेवा करके सुधार करना है न कि धन-सम्पति इकट्ठी करके सांसारिक भोगों में लिप्त रहना । मैं परमात्मा के दिखाये श्रेष्ठ मार्ग से कभी विमुख नहीं हो सकता ।
प्रशंसनीय
ReplyDelete