मार्टिन लूथर का जीवन वृत ईसाई मतावलम्बियों के लिए ही नहीं सब धर्मावलम्बियों को यह दिग्दर्शन कराने के लिए पर्याप्त है कि धार्मिक आस्था तो अनिवार्य है किन्तु अंध श्रद्धा , अन्धविश्वास नहीं । धर्म पर जब भी स्वार्थी तत्व छाने लगे तब उसमे सुधार -क्रांति भी आवश्यक है । उनकी रूचि धर्म -प्रचारक बनने की थी , अत: अध्ययन सम प्त करने के बाद वे जर्मनी के आगस्टिनन साधु संघ में प्रविष्ट हो गये ।
वे गांवों के गिरजाघरों में उपदेश देने जाते , कई साधु-संस्थानों की भोजन व प्रार्थना आदि की देखरेख भी करते थे, छोटे पादरियों को पढ़ाने का काम भी उन्हें करना पड़ता था । साधु होने का अर्थ वे अकर्मण्य होना नहीं वरन नि:स्वार्थ भाव से दिन -रात काम करना मानते थे इतना काम करने के बाद भी वे अपनी नियमित दिनचर्या में से लेखन के लिए समय निकाल लेते थे । उन्होंने पुस्तकाकार के कोई 300 0 0 पत्र अपने जीवन काल में लिखे ।
बाइबिल तथा अन्य धर्म ग्रंथों के गूढ़ अध्ययन तथा साधु का संयमित जीवन जीते हुए
वे धर्म की उस शक्ति से परिचित हो चुके थे जो मनुष्य को सन्मार्ग पर चलाती है जिससे धरती पर सुख शान्ति की अभिवृद्धि होती है । किन्तु वे देख रहे थे कि ईसाई जगत में धर्म के नाम पर धर्माचार्य आशीर्वाद और वरदानो की दुकाने लगाये बैठे थे और दोनों हाथों से सोना -चांदी लूट रहे थे ।
मार्टिन लूथर ने जनता को इस धार्मिक अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाने का संकल्प ले लिया । उन्हें विश्वास था कि सत्य की शक्ति सर्वोपरि है , उसके आगे बड़ी -बड़ी ताकतों को भी झुकना पड़ता है ।
उन्होंने अपने प्रवचनों उपदेशों में जोरदार शब्दों में यह बात कहनी आरम्भ की --- " व्यक्ति के कर्म प्रमुख हैं , कर्मों के अनुसार ही दयालु और न्यायकारी ईश्वर दंड और उपहार देता है । स्वर्ग तथा पापों से मुक्ति शुभ कर्मों द्वारा ही मिल सकती है , पैसों से खरीदी गई ' ईश्वर की कृपा ' व ' पापों से मुक्ति ' कुछ काम देने वाली नहीं हैं ।
लूथर ने यूरोप में एक नयी विचारधारा को जन्म दिया , उन्होंने ' प्रोटेस्टेन्ट ' सम्प्रदाय की नींव डाली । उनकी उत्पन्न की हुई धार्मिक क्रांति आग की तरह ईसाई-जगत में फ़ैल गई । इस क्रांति से करोडो पददलित व्यक्तियों का उद्धार हुआ । वे लोग जो अपने को सदा पापग्रस्त तथा दीन-हीन मानते थे , उन्हें भी अपने मोक्ष का मार्ग दि खाई देने लगा ।
वे गांवों के गिरजाघरों में उपदेश देने जाते , कई साधु-संस्थानों की भोजन व प्रार्थना आदि की देखरेख भी करते थे, छोटे पादरियों को पढ़ाने का काम भी उन्हें करना पड़ता था । साधु होने का अर्थ वे अकर्मण्य होना नहीं वरन नि:स्वार्थ भाव से दिन -रात काम करना मानते थे इतना काम करने के बाद भी वे अपनी नियमित दिनचर्या में से लेखन के लिए समय निकाल लेते थे । उन्होंने पुस्तकाकार के कोई 300 0 0 पत्र अपने जीवन काल में लिखे ।
बाइबिल तथा अन्य धर्म ग्रंथों के गूढ़ अध्ययन तथा साधु का संयमित जीवन जीते हुए
वे धर्म की उस शक्ति से परिचित हो चुके थे जो मनुष्य को सन्मार्ग पर चलाती है जिससे धरती पर सुख शान्ति की अभिवृद्धि होती है । किन्तु वे देख रहे थे कि ईसाई जगत में धर्म के नाम पर धर्माचार्य आशीर्वाद और वरदानो की दुकाने लगाये बैठे थे और दोनों हाथों से सोना -चांदी लूट रहे थे ।
मार्टिन लूथर ने जनता को इस धार्मिक अन्धविश्वास से मुक्ति दिलाने का संकल्प ले लिया । उन्हें विश्वास था कि सत्य की शक्ति सर्वोपरि है , उसके आगे बड़ी -बड़ी ताकतों को भी झुकना पड़ता है ।
उन्होंने अपने प्रवचनों उपदेशों में जोरदार शब्दों में यह बात कहनी आरम्भ की --- " व्यक्ति के कर्म प्रमुख हैं , कर्मों के अनुसार ही दयालु और न्यायकारी ईश्वर दंड और उपहार देता है । स्वर्ग तथा पापों से मुक्ति शुभ कर्मों द्वारा ही मिल सकती है , पैसों से खरीदी गई ' ईश्वर की कृपा ' व ' पापों से मुक्ति ' कुछ काम देने वाली नहीं हैं ।
लूथर ने यूरोप में एक नयी विचारधारा को जन्म दिया , उन्होंने ' प्रोटेस्टेन्ट ' सम्प्रदाय की नींव डाली । उनकी उत्पन्न की हुई धार्मिक क्रांति आग की तरह ईसाई-जगत में फ़ैल गई । इस क्रांति से करोडो पददलित व्यक्तियों का उद्धार हुआ । वे लोग जो अपने को सदा पापग्रस्त तथा दीन-हीन मानते थे , उन्हें भी अपने मोक्ष का मार्ग दि खाई देने लगा ।
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