विद्दा की विभूति तो कईयों को ईश्वर देता है किन्तु वासुदेवशरण जी की तरह उसकी साधना और सदुपयोग बहुत विरले ही कर पाते हैं । उनके जीवन के बारे में उनके ये शब्द बहुत कुछ कह जाते हैं ---- " पढ़ने और लिखने को तो इतना पड़ा है कि दस जन्म लूँ तब भी पूरा न हो । काम बहुत है और समय बहुत कम । जीवन तो जायेगा ही पर यह व्यर्थ नहीं जाना चाहिए । "
व्यक्ति जीवन में कितना कुछ ज्ञानार्जन कर सकता है ! इस तथ्य के वे सजीव उदाहरण थे ।
पद्मश्री गोपालप्रसाद व्यास ने उनके लिए लिखा है ------ " संसार की शायद ही कोई मुख्य भाषा ऐसी हो जिसका ज्ञान वासुदेवजी को न हो और जिसकी लिपि , उत्पति और विकास के संबंध में उनकी जानकारी न हो । भारत की किसी भी भाषा का शायद ही कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ ऐसा बचा हो जो वासुदेवजी ने न पढ़ा हो । भारत - विद्दा का शायद ही कोई ऐसा प्रश्न हो जिसका उत्तर उनके पास न हो । ज्ञान के प्रति जिज्ञासा उन्हें अत्यंत प्रिय थी । लोग उनसे भांति - भांति के प्रश्न पूछने आया करते थे ।
कई लोगों को तो अपने देश का इतिहास ज्ञात नहीं होता , पर उन्हें तो लाखों शब्दों का इतिहास ज्ञात था । उनसे एक प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया ---- वासुदेवजी ! यह ' पागल ' शब्द कैसे बना है ? "
तो वे लपक कर अपने आसन से उठे और भीतर से एक कोष निकाल लाये । कहने लगे -- " इसे रूस के जार ने पहले - पहल छपवाया था । पहले - पहल ' पागल ' शब्द का प्रयोग इसी कोष में
हुआ ।" ऐसा विलक्षण था उनका ज्ञान और विलक्षण थी उनकी ज्ञान - साधना ।
उन्हें अपनी विद्वता का तनिक भी गर्व नहीं था । अपने छोटे से जीवन में जितना महत्व उन्होंने देश और देशवासियों को दिया उस ऋण से हम उऋण नहीं हो सकते ।
व्यक्ति जीवन में कितना कुछ ज्ञानार्जन कर सकता है ! इस तथ्य के वे सजीव उदाहरण थे ।
पद्मश्री गोपालप्रसाद व्यास ने उनके लिए लिखा है ------ " संसार की शायद ही कोई मुख्य भाषा ऐसी हो जिसका ज्ञान वासुदेवजी को न हो और जिसकी लिपि , उत्पति और विकास के संबंध में उनकी जानकारी न हो । भारत की किसी भी भाषा का शायद ही कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ ऐसा बचा हो जो वासुदेवजी ने न पढ़ा हो । भारत - विद्दा का शायद ही कोई ऐसा प्रश्न हो जिसका उत्तर उनके पास न हो । ज्ञान के प्रति जिज्ञासा उन्हें अत्यंत प्रिय थी । लोग उनसे भांति - भांति के प्रश्न पूछने आया करते थे ।
कई लोगों को तो अपने देश का इतिहास ज्ञात नहीं होता , पर उन्हें तो लाखों शब्दों का इतिहास ज्ञात था । उनसे एक प्रश्नकर्ता ने प्रश्न किया ---- वासुदेवजी ! यह ' पागल ' शब्द कैसे बना है ? "
तो वे लपक कर अपने आसन से उठे और भीतर से एक कोष निकाल लाये । कहने लगे -- " इसे रूस के जार ने पहले - पहल छपवाया था । पहले - पहल ' पागल ' शब्द का प्रयोग इसी कोष में
हुआ ।" ऐसा विलक्षण था उनका ज्ञान और विलक्षण थी उनकी ज्ञान - साधना ।
उन्हें अपनी विद्वता का तनिक भी गर्व नहीं था । अपने छोटे से जीवन में जितना महत्व उन्होंने देश और देशवासियों को दिया उस ऋण से हम उऋण नहीं हो सकते ।
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