' एक तो चेचक के दागों से भरा हुआ चेहरा ऊपर से काला रंग , उस चेचक के कारण चेहरा ही कुरूप नहीं हुआ , अपनी एक आँख भी खो बैठे ' सो एक राजा एक संत को देखकर हंस पड़ा ।
संत को राजा की हंसी पर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा ---- " मोहि का हँससि की कोहरे । "
( तुम मुझे देखकर हँसते हो या ईश्वर की बनाई हुई वस्तु पर )
संत के ये वचन सुनकर राजा विचार में पड़ गया । जब इन शब्दों का अर्थ उसे समझ में आया तो वह संत से क्षमा मांगने लगा । पर वे तो मान - अपमान से ऊपर उठ चुके थे । उन्हें तो बोध भर कराना था राजा को कि ईश्वर की बनाई वस्तु असुन्दर नहीं होती । हमारे मन का कलुष , ह्रदय का अज्ञान ही उसे ऐसा देखता है । ये संत थे ---- मलिक मुहम्मद जायसी ।
कई लोग अपनी शारीरिक सुन्दरता के अभाव में दुःखी और खिन्न रहते हैं । उन्हें जायसी की तरह उस सौन्दर्य का बोध पाना चाहिए जो नश्वर नहीं है , जरा और रोग उसपर प्रभाव नहीं डाल पाते । जायसी अपनी कुरूपता और निर्धनता को लेकर कभी दुःखी नहीं रहे । उन्होंने ईश्वर की इच्छा को समझा , कि उन्हें क्यों निर्धनता और कुरूपता से विभूषित किया गया है और उनकी यह निर्धनता और कुरूपता उनके लिए वरदान बन गई ।
जायसी धर्म के ऊपर उठकर अध्यात्म के उस ईश्वरीय साम्राज्य में पहुँच गये थे , उन्होंने उस सौन्दर्य को पा लिया जो सत्य है ।
जायसी हिन्दी के प्रसिद्ध संत - कवियों में से एक माने जाते हैं । ' पद्मावत ' उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है । सत्य की साधना और इन्द्रिय - वासनाओं के अध्यात्मीकरण के कारण उनके वचनों में कुछ ऐसी शक्ति उत्पन्न हो गई थी कि उनके आशीर्वाद से कई लोगों की कामनाएं पूर्ण होने लगीं थीं । वे सादगी , सरलता , सज्जनता व निस्पृहता की प्रतिमूर्ति थे ।
संत को राजा की हंसी पर बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा ---- " मोहि का हँससि की कोहरे । "
( तुम मुझे देखकर हँसते हो या ईश्वर की बनाई हुई वस्तु पर )
संत के ये वचन सुनकर राजा विचार में पड़ गया । जब इन शब्दों का अर्थ उसे समझ में आया तो वह संत से क्षमा मांगने लगा । पर वे तो मान - अपमान से ऊपर उठ चुके थे । उन्हें तो बोध भर कराना था राजा को कि ईश्वर की बनाई वस्तु असुन्दर नहीं होती । हमारे मन का कलुष , ह्रदय का अज्ञान ही उसे ऐसा देखता है । ये संत थे ---- मलिक मुहम्मद जायसी ।
कई लोग अपनी शारीरिक सुन्दरता के अभाव में दुःखी और खिन्न रहते हैं । उन्हें जायसी की तरह उस सौन्दर्य का बोध पाना चाहिए जो नश्वर नहीं है , जरा और रोग उसपर प्रभाव नहीं डाल पाते । जायसी अपनी कुरूपता और निर्धनता को लेकर कभी दुःखी नहीं रहे । उन्होंने ईश्वर की इच्छा को समझा , कि उन्हें क्यों निर्धनता और कुरूपता से विभूषित किया गया है और उनकी यह निर्धनता और कुरूपता उनके लिए वरदान बन गई ।
जायसी धर्म के ऊपर उठकर अध्यात्म के उस ईश्वरीय साम्राज्य में पहुँच गये थे , उन्होंने उस सौन्दर्य को पा लिया जो सत्य है ।
जायसी हिन्दी के प्रसिद्ध संत - कवियों में से एक माने जाते हैं । ' पद्मावत ' उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है । सत्य की साधना और इन्द्रिय - वासनाओं के अध्यात्मीकरण के कारण उनके वचनों में कुछ ऐसी शक्ति उत्पन्न हो गई थी कि उनके आशीर्वाद से कई लोगों की कामनाएं पूर्ण होने लगीं थीं । वे सादगी , सरलता , सज्जनता व निस्पृहता की प्रतिमूर्ति थे ।
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