' किसी व्यक्ति के उच्च आध्यात्मिक भूमिका तक पहुँचने में , जीवन लक्ष्य प्राप्त करने में गृहस्थ धर्म बाधक नहीं है । गृही और विरक्त दोनों ही स्थिति में रहकर ईश्वर की उपासना और आध्यात्मिक साधना की जा सकती है । '
आंतरिक विकास का संबंध भावना की उत्कृष्टता से है । सत्य निष्ठा, सदाचार , दया ,अनासक्ति , ईश्वर उपासना , निरहंकारिता , परमार्थ भावना , निस्पृहता आदि सद्प्रवृतियों को अपनाने से किसी भी वर्ण आश्रम में रहते हुए मनुष्य लक्ष्य तक पहुँच सकता है । इनके अभाव में वेश धारण कर लेने या घर त्याग देने , अविवाहित रहने जैसी बाह्य प्रक्रियाओं के आधार पर कोई लक्ष्य प्राप्त करना चाहे तो संभव नहीं है ।
सिख धर्म एक ऐसा धर्म है जिसके गुरुओं और संतों ने गृहस्थ धर्म में रहकर आत्म कल्याण और लोक -सेवा का महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया ।
आत्म कल्याण के जो पथिक जन सम्पर्क से दूर नहीं रह सकते हैं , उनके लिए गृहस्थ धर्म ही उपयुक्त है । इस द्रष्टि से सिख गुरुओं ने एक अनुकरणीय परंपरा की स्थापना की ।
आंतरिक विकास का संबंध भावना की उत्कृष्टता से है । सत्य निष्ठा, सदाचार , दया ,अनासक्ति , ईश्वर उपासना , निरहंकारिता , परमार्थ भावना , निस्पृहता आदि सद्प्रवृतियों को अपनाने से किसी भी वर्ण आश्रम में रहते हुए मनुष्य लक्ष्य तक पहुँच सकता है । इनके अभाव में वेश धारण कर लेने या घर त्याग देने , अविवाहित रहने जैसी बाह्य प्रक्रियाओं के आधार पर कोई लक्ष्य प्राप्त करना चाहे तो संभव नहीं है ।
सिख धर्म एक ऐसा धर्म है जिसके गुरुओं और संतों ने गृहस्थ धर्म में रहकर आत्म कल्याण और लोक -सेवा का महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया ।
आत्म कल्याण के जो पथिक जन सम्पर्क से दूर नहीं रह सकते हैं , उनके लिए गृहस्थ धर्म ही उपयुक्त है । इस द्रष्टि से सिख गुरुओं ने एक अनुकरणीय परंपरा की स्थापना की ।
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