'पीड़ित मानवता की पीड़ा को अपनी सजीव लेखनी से लिखकर समाज के सामने रखने की उनमे अद्भुत क्षमता थी । ' उन्होंने संसार के देशवासियों से इस बात का अनुरोध किया कि वे बातचीत और व्यवहार में धरती का पूर्व तथा पश्चिम के नाम से विभाजन न करें , यह विभाजन बड़ा घातक है । उनका विचार था कि जब तक संसार में पूर्व और पश्चिम के मध्य एकता स्थापित नहीं हो जाती तब तक विश्व शान्ति एक दिवा - स्वप्न - मात्र ही बन कर रहेगी ।
चीन में उस समय कम्युनिस्ट शासन नहीं था । पर्लबक के पिता चीन में ईसाई धर्म प्रचारक थे । वे अपनी पुत्री को कहानियां सुनाया करते थे । अकाल , महामारी , बाढ़ और सूखाग्रस्त किसान परिवार की कहानियां वे बड़े चाव से सुनती थीं । ऐसे ही एक किसान की कहानी उनके मन में घर कर गई । पर्लबक किशोरी थीं , दाई कहानी सुनाते हुए कह रही थी --- " चिंग जब बीमार रहने लगा तो उसके पुत्रों ने सोचा जमीन का बँटवारा कर लेना चाहिए और वे किसी प्रश्न पर सहमत न होने के कारण झगड़ने लगे थे । "
किशोरी ने बीच में ही बात काटी ----- ' क्या जमीन का बंटवारा भी होता है ? '
धाय माँ ने कहा ---- " हाँ , जमीन भी बांटी जाती है । "
किशोरी ने कहा ---- " पिताजी तो हमेशा कहते हैं कि धरती , पानी , हवा , और नदियाँ सबके लिए बनाई हैं । वे भगवान की हैं , उनके लिए किसी को लड़ना नहीं चाहिए , फिर ये लोग क्यों झगड़ते हैं । " उस समय तो दाई ने किसी तरह बहला दिया किन्तु किशोरी का चिंतन चलता रहा और बड़ी होने पर उसने इसी पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिखा जिसे आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई और श्रेष्ठ कृति के रूप में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ । उपन्यास का नाम है ----
' दि गुड अर्थ ' और उपन्यासकार हैं --- पर्लबक । इस उपन्यास में उस किसान की व्यथा और वेदना भरी कहानी है ।
उनने कई देशों की यात्राएँ की और वे सर्वाधिक प्रभावित हुईं भारत से । यहाँ के गाँव वासियों की सरलता , सादगी और पवित्र जीवन ने उन्हें अपना बना लिया । भारत यात्रा के संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि यहाँ के जनजीवन और नागरिकों के रहन - सहन की सरलता ने मुझे यह प्रतीत कराया कि धर्म और अध्यात्म को इन लोगों ने अपने जीवन में पूरी तरह उतारा है ।
उन्होंने अपनी पुस्तकों के सस्ते संस्करण तैयार कराये तथा गरीब से गरीब घरों में उन ग्रंथों को पहुँचाया । प्रेम , सहानुभूति , सहिष्णुता और आपसी भाईचारे का शाश्वत - सन्देश उनकी रचनाओं में मुखरित हुआ है ।
चीन में उस समय कम्युनिस्ट शासन नहीं था । पर्लबक के पिता चीन में ईसाई धर्म प्रचारक थे । वे अपनी पुत्री को कहानियां सुनाया करते थे । अकाल , महामारी , बाढ़ और सूखाग्रस्त किसान परिवार की कहानियां वे बड़े चाव से सुनती थीं । ऐसे ही एक किसान की कहानी उनके मन में घर कर गई । पर्लबक किशोरी थीं , दाई कहानी सुनाते हुए कह रही थी --- " चिंग जब बीमार रहने लगा तो उसके पुत्रों ने सोचा जमीन का बँटवारा कर लेना चाहिए और वे किसी प्रश्न पर सहमत न होने के कारण झगड़ने लगे थे । "
किशोरी ने बीच में ही बात काटी ----- ' क्या जमीन का बंटवारा भी होता है ? '
धाय माँ ने कहा ---- " हाँ , जमीन भी बांटी जाती है । "
किशोरी ने कहा ---- " पिताजी तो हमेशा कहते हैं कि धरती , पानी , हवा , और नदियाँ सबके लिए बनाई हैं । वे भगवान की हैं , उनके लिए किसी को लड़ना नहीं चाहिए , फिर ये लोग क्यों झगड़ते हैं । " उस समय तो दाई ने किसी तरह बहला दिया किन्तु किशोरी का चिंतन चलता रहा और बड़ी होने पर उसने इसी पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिखा जिसे आगे चलकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई और श्रेष्ठ कृति के रूप में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ । उपन्यास का नाम है ----
' दि गुड अर्थ ' और उपन्यासकार हैं --- पर्लबक । इस उपन्यास में उस किसान की व्यथा और वेदना भरी कहानी है ।
उनने कई देशों की यात्राएँ की और वे सर्वाधिक प्रभावित हुईं भारत से । यहाँ के गाँव वासियों की सरलता , सादगी और पवित्र जीवन ने उन्हें अपना बना लिया । भारत यात्रा के संस्मरणों में उन्होंने लिखा है कि यहाँ के जनजीवन और नागरिकों के रहन - सहन की सरलता ने मुझे यह प्रतीत कराया कि धर्म और अध्यात्म को इन लोगों ने अपने जीवन में पूरी तरह उतारा है ।
उन्होंने अपनी पुस्तकों के सस्ते संस्करण तैयार कराये तथा गरीब से गरीब घरों में उन ग्रंथों को पहुँचाया । प्रेम , सहानुभूति , सहिष्णुता और आपसी भाईचारे का शाश्वत - सन्देश उनकी रचनाओं में मुखरित हुआ है ।
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