' टंडन जी की सच्चाई और ईमानदारी इतनी सुद्रढ़ थी कि वर्षों तक एक नामी वकील , नाभा राज्य के दीवान , म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन, प्रांतीय विधानसभा के अध्यक्ष रहने पर भी , एक पैसे की ' आमदनी ' नहीं की । इतने बड़े नेता होने पर भी उनकी आर्थिक दशा सदा सामान्य ही रही । '
जब असहयोग आन्दोलन में गांधीजी के आदेशानुसार उन्होंने वकालत करना बंद कर दिया तो घर का निर्वाह होना भी कठिन हो गया । उस समय कांग्रेस की तरफ से सेठ जमनालाल बजाज ने सहायता देने को कहा , पर टंडन जी ने उत्तर दिया ---- ' मैं अपनी सेवा को किसी मूल्य पर बेच नहीं सकता । ' उनके इन गुणों और त्याग - तपस्यामय जीवन के कारण जनता उनको
' राजर्षी ' कहने लगी । नि:संदेह वे इस पदवी के योग्य थे । '
भारतीय प्रजा के सुख और सम्मान की रक्षा के साथ टंडन जी भारतीय - संस्कृति के भी बड़े पृष्ठ - पोषक थे । वे मानते थे कि किसी जाति की सभ्यता और संस्कृति की मुख्य प्रतीक और संवर्द्धन कर्ता वहां की भाषा ही होती है , इसलिए उन्होंने अपना समस्त जीवन भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी की पुष्टि और वृद्धि में लगा दिया । यद्दपि वे हिन्दी , अंग्रेजी , संस्कृत , फारसी , उर्दू आदि भाषाओँ के विद्वान थे पर उन्होंने हिन्दी का प्रचार बढ़ाने और उसे राष्ट्र भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए जितना परिश्रम और आत्मत्याग किया , उतना पचासों विद्वान और लेखक भी मिलकर नहीं कर सकते । हिन्दी - साहित्य - सम्मेलन की स्थापना करके टंडन जी ने हिन्दी के प्रचार और उसकी प्रगति का द्वार खोल दिया ।
जब असहयोग आन्दोलन में गांधीजी के आदेशानुसार उन्होंने वकालत करना बंद कर दिया तो घर का निर्वाह होना भी कठिन हो गया । उस समय कांग्रेस की तरफ से सेठ जमनालाल बजाज ने सहायता देने को कहा , पर टंडन जी ने उत्तर दिया ---- ' मैं अपनी सेवा को किसी मूल्य पर बेच नहीं सकता । ' उनके इन गुणों और त्याग - तपस्यामय जीवन के कारण जनता उनको
' राजर्षी ' कहने लगी । नि:संदेह वे इस पदवी के योग्य थे । '
भारतीय प्रजा के सुख और सम्मान की रक्षा के साथ टंडन जी भारतीय - संस्कृति के भी बड़े पृष्ठ - पोषक थे । वे मानते थे कि किसी जाति की सभ्यता और संस्कृति की मुख्य प्रतीक और संवर्द्धन कर्ता वहां की भाषा ही होती है , इसलिए उन्होंने अपना समस्त जीवन भारत की राष्ट्र भाषा हिन्दी की पुष्टि और वृद्धि में लगा दिया । यद्दपि वे हिन्दी , अंग्रेजी , संस्कृत , फारसी , उर्दू आदि भाषाओँ के विद्वान थे पर उन्होंने हिन्दी का प्रचार बढ़ाने और उसे राष्ट्र भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए जितना परिश्रम और आत्मत्याग किया , उतना पचासों विद्वान और लेखक भी मिलकर नहीं कर सकते । हिन्दी - साहित्य - सम्मेलन की स्थापना करके टंडन जी ने हिन्दी के प्रचार और उसकी प्रगति का द्वार खोल दिया ।
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