पं. मदनमोहन मालवीय सनातन धर्म के साकार रूप थे किन्तु जो धार्मिक नियम रूढ़ि बनकर देश , जाति अथवा समाज को हानि पहुँचाने लगते थे उनका त्याग कर देने में उन्हें जरा भी संकोच नहीं होता था । इसका प्रमाण उन्होंने अछूतों और दलित वर्ग के प्रति सेवा भावना से दिया ।
मालवीयजी चाहते थे कि हरिजन भाई हिन्दू धर्म के ही एक अंग बने रहें । यदि ब्राह्मणों द्वारा उन्हें भी मन्त्र दीक्षा दी जा सके तो ये भी अपने को सहयोगी मानते रहेंगे और देश को स्वतंत्र कराने में उनसे जो बन पड़ेगा उसे करने में पीछे न रहेंगे । इस आशय से उन्होंने देश के विभिन्न भागों से प्रकांड पंडितों को आमंत्रित किया ।
ओरियन्टल महाविद्यालय के सभा भवन में सभा का आयोजन किया गया । कार्यवाही प्रारम्भ हुई । प्रारम्भ में ही श्री मालवीयजी ने बड़े ही नम्र शब्दों में अपनी बात कही और उपस्थित विद्वानों से यह निवेदन किया कि हरिजनो की समस्या को युग की पुकार समझकर अपने - अपने विचार प्रकट करने का कष्ट करें ।
पं. प्रथमनाथ तर्क भूषण जैसे पंडितों ने उनका समर्थन किया । वहां कितने ही कट्टर ब्राह्मणों ने उनके प्रयत्न को निंदनीय ठहराया । एक सज्जन ने उनके प्रयास की आलोचना करते हुए यहाँ तक विरोध प्रकट किया कि मालवीयजी को इन कार्यों से नरकगामी होना पड़ेगा ।
इतना सुनकर मालवीयजी हँस पड़े , उन्होंने कहा --------- " सज्जनों यदि हिन्दू धर्म के उत्थान और उसकी एकता बनाये रखने के लिए मुझे एक बार नहीं हजार बार नरक जाना पड़े फिर भी मैं वहां के कष्टों को भोगने के लिए सहर्ष तैयार हूँ । इस समय तो आपको हमारा समर्थन करना
चाहिए । " अब उनकी आलोचना करने की किसी में हिम्मत नहीं थी ।
मालवीयजी चाहते थे कि हरिजन भाई हिन्दू धर्म के ही एक अंग बने रहें । यदि ब्राह्मणों द्वारा उन्हें भी मन्त्र दीक्षा दी जा सके तो ये भी अपने को सहयोगी मानते रहेंगे और देश को स्वतंत्र कराने में उनसे जो बन पड़ेगा उसे करने में पीछे न रहेंगे । इस आशय से उन्होंने देश के विभिन्न भागों से प्रकांड पंडितों को आमंत्रित किया ।
ओरियन्टल महाविद्यालय के सभा भवन में सभा का आयोजन किया गया । कार्यवाही प्रारम्भ हुई । प्रारम्भ में ही श्री मालवीयजी ने बड़े ही नम्र शब्दों में अपनी बात कही और उपस्थित विद्वानों से यह निवेदन किया कि हरिजनो की समस्या को युग की पुकार समझकर अपने - अपने विचार प्रकट करने का कष्ट करें ।
पं. प्रथमनाथ तर्क भूषण जैसे पंडितों ने उनका समर्थन किया । वहां कितने ही कट्टर ब्राह्मणों ने उनके प्रयत्न को निंदनीय ठहराया । एक सज्जन ने उनके प्रयास की आलोचना करते हुए यहाँ तक विरोध प्रकट किया कि मालवीयजी को इन कार्यों से नरकगामी होना पड़ेगा ।
इतना सुनकर मालवीयजी हँस पड़े , उन्होंने कहा --------- " सज्जनों यदि हिन्दू धर्म के उत्थान और उसकी एकता बनाये रखने के लिए मुझे एक बार नहीं हजार बार नरक जाना पड़े फिर भी मैं वहां के कष्टों को भोगने के लिए सहर्ष तैयार हूँ । इस समय तो आपको हमारा समर्थन करना
चाहिए । " अब उनकी आलोचना करने की किसी में हिम्मत नहीं थी ।
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