' वसुधैव कुटुम्बकम ' के भारतीय आदर्श को उन्होंने जीवन में साकार किया था । आपा - धापी , प्रदर्शन और उपदेश , दान , त्याग पर जो राजमार्ग इस तपस्वी लोक - सेवक ने चुना वह कोई सच्चा लोकसेवी ही अपनाता है । उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी पर उनके स्नेह की छाया में कितने ही स्नेह के भूखे शिशुओं को सुखद छाया नसीब हुई है | '
जब गांधीजी के विचारों की आँधी चली तो आप्टे को लगा कि जिस पथ की उन्हें प्रतीक्षा थी वह उन्हें मिल गया । इनके पास गाँधी जी को देने के लिए न धन था , न सम्पदा थी और न कुछ था । इसलिए इन्होने जीवन ही गाँधी जी के आदर्शों को समर्पित कर दिया जो धन - सम्पदा से अधिक मूल्यवान था |
स्वराज्य मिलने के बाद जिसके हाथ जो कुर्सी लगी वह उसी पर बैठने लगा । तब आप्टे जी ने अपने उस देशप्रेम को बेचा नहीं ----- वे जानते थे कि भारत गांवों का देश है , गांवों की समृद्धि पर ही सारे देश की समृद्धि है । उन्होंने अपना कर्म क्षेत्र गाँव को ही बनाया । अपने गाँव की डेढ़ बीघा अनुपजाऊ जमीन को आप्टे जी ने अपनी प्रयोगशाला बनाया । जब उन्होंने अपमनी इस अनुपजाऊ भूमि पर काम करना आरम्भ किया तो लोगों ने उन्हें पागल व सनकी समझा । जब उस खेत में अन्य उपजाऊ खेतों की अपेक्षा दुगुनी - तिगुनी फसल होने लगी तो वे ही इनके प्रशंसक बन गये ।
सादगी , सज्जनता , अपरिग्रह तथा ऋषि परंपरा का जीवन जीने वाले आप्टे जी ने उस क्षेत्र में क्रान्ति उपस्थित कर दी । उन्होंने बीस - बीस फुट जमीन में भी गेंहू बो कर उसमे पर्याप्त अन्न उत्पन्न किया । आप्टे जी खेती नहीं करते थे , पूजा करते थे । धरती माता की पूजा - सेवा कर के उससे एक शिशु की तरह अन्न का उपहार पाते । फावड़ा , कुदाली , हँसिया, खुरपी , तगारी आदि उनके लिए माला , धूप - दीप और नेवैद्द्य था । यह श्रम देवता की पूजा ही उनके जीवन का आधार था ।
आप्टे जी के तरीके को अपनाकर कम से भूमि व कम साधनों वाला किसान अपना तथा अपने परिवार का पोषण कर सकता है । इस भूमि के टुकड़े पर चार से पांच घंटे परिश्रम करके वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे और शेष समय समाज निर्माण , लोक - शिक्षण तथा सेवा में लगाते थे ।
आप्टे जी ने इस आदर्श कृषि परंपरा से उस क्षेत्र के कृषकों में नवजीवन का संचार किया ।
जब गांधीजी के विचारों की आँधी चली तो आप्टे को लगा कि जिस पथ की उन्हें प्रतीक्षा थी वह उन्हें मिल गया । इनके पास गाँधी जी को देने के लिए न धन था , न सम्पदा थी और न कुछ था । इसलिए इन्होने जीवन ही गाँधी जी के आदर्शों को समर्पित कर दिया जो धन - सम्पदा से अधिक मूल्यवान था |
स्वराज्य मिलने के बाद जिसके हाथ जो कुर्सी लगी वह उसी पर बैठने लगा । तब आप्टे जी ने अपने उस देशप्रेम को बेचा नहीं ----- वे जानते थे कि भारत गांवों का देश है , गांवों की समृद्धि पर ही सारे देश की समृद्धि है । उन्होंने अपना कर्म क्षेत्र गाँव को ही बनाया । अपने गाँव की डेढ़ बीघा अनुपजाऊ जमीन को आप्टे जी ने अपनी प्रयोगशाला बनाया । जब उन्होंने अपमनी इस अनुपजाऊ भूमि पर काम करना आरम्भ किया तो लोगों ने उन्हें पागल व सनकी समझा । जब उस खेत में अन्य उपजाऊ खेतों की अपेक्षा दुगुनी - तिगुनी फसल होने लगी तो वे ही इनके प्रशंसक बन गये ।
सादगी , सज्जनता , अपरिग्रह तथा ऋषि परंपरा का जीवन जीने वाले आप्टे जी ने उस क्षेत्र में क्रान्ति उपस्थित कर दी । उन्होंने बीस - बीस फुट जमीन में भी गेंहू बो कर उसमे पर्याप्त अन्न उत्पन्न किया । आप्टे जी खेती नहीं करते थे , पूजा करते थे । धरती माता की पूजा - सेवा कर के उससे एक शिशु की तरह अन्न का उपहार पाते । फावड़ा , कुदाली , हँसिया, खुरपी , तगारी आदि उनके लिए माला , धूप - दीप और नेवैद्द्य था । यह श्रम देवता की पूजा ही उनके जीवन का आधार था ।
आप्टे जी के तरीके को अपनाकर कम से भूमि व कम साधनों वाला किसान अपना तथा अपने परिवार का पोषण कर सकता है । इस भूमि के टुकड़े पर चार से पांच घंटे परिश्रम करके वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे और शेष समय समाज निर्माण , लोक - शिक्षण तथा सेवा में लगाते थे ।
आप्टे जी ने इस आदर्श कृषि परंपरा से उस क्षेत्र के कृषकों में नवजीवन का संचार किया ।
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