स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण 1932 में कई देशभक्त नवयुवक धूलिया जेल में थे । वहीँ विनोबा भावे पांडुरंग सदाशिव साने से परिचित हुए और उन्होंने धूलिया जेल में रह रहे महाराष्ट्रीय युवकों को संस्कारित करने का दायित्व उन्हें सौंपा । और यहीं उन्हें साने सर के स्थान पर साने गुरूजी कहा जाने लगा ।
इन्ही दिनों विनोबा भावे ने कैदियों को गीता समझाने के लिए प्रति रविवार गीता के एक अध्याय पर प्रवचन देना आरम्भ किया । 21 फरवरी से ये प्रवचन आरम्भ हुए तथा अंतिम प्रवचन 19 मई को हुआ । इन प्रवचनों में विनोबा भावे ने गीता पर अपना द्रष्टिकोण सरल भाषा में व्यक्त किया । साने गुरूजी प्रवचन के समय कागज - कलम लेकर बैठते और नोट करते जाते । बाद में यह प्रवचन ' गीता - प्रवचन ' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक के कई संस्करण छप चुके तथा अब तक लाखों प्रतियाँ बिक चुकी । देश - विदेश की 20 अन्य भाषाओँ में भी इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ और इसका श्रेय साने गुरूजी को ही जाता है ।
विनोबा भावे ने स्वयं लिखा है ---- " मेरी तो कल्पना में भी नहीं आया था कि यह कभी छपेगा । साने गुरूजी जैसा सह्रदय और शार्ट हैण्ड से लिख सकने वाला लेखक यदि नहीं मिल पाता तो जिसने कहा और जिन्होंने सुना उन्ही में इसकी परिसमाप्ति हो जाती । "
जब साने गुरूजी को धूलिया जेल से हटाकर नासिक जेल में भेज दिया गया तो वहां रहकर उन्होंने पत्र, श्यामयी आई आदि के रूप में कई कवितायेँ , संस्मरण तथा गद्द साहित्य लिख डाला । जेल से छूटने के बाद वे अज्ञात रहने लगे और अज्ञातवास में पूना में रहते हुए उन्होंने मराठी भाषा की कोई दो हजार ओवियों का संकलन किया जो बाद में दो खण्डों में प्रकाशित हुआ । स्वतंत्रता के बाद साने गुरूजी देश में जगह - जगह शान्ति स्थापना के लिए जाने लगे । भारत माता की सेवा ही उनका एकमात्र कार्य था जिसके लिए उन्होंने बहुत परिश्रम किया ।
इन्ही दिनों विनोबा भावे ने कैदियों को गीता समझाने के लिए प्रति रविवार गीता के एक अध्याय पर प्रवचन देना आरम्भ किया । 21 फरवरी से ये प्रवचन आरम्भ हुए तथा अंतिम प्रवचन 19 मई को हुआ । इन प्रवचनों में विनोबा भावे ने गीता पर अपना द्रष्टिकोण सरल भाषा में व्यक्त किया । साने गुरूजी प्रवचन के समय कागज - कलम लेकर बैठते और नोट करते जाते । बाद में यह प्रवचन ' गीता - प्रवचन ' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक के कई संस्करण छप चुके तथा अब तक लाखों प्रतियाँ बिक चुकी । देश - विदेश की 20 अन्य भाषाओँ में भी इसका अनुवाद प्रकाशित हुआ और इसका श्रेय साने गुरूजी को ही जाता है ।
विनोबा भावे ने स्वयं लिखा है ---- " मेरी तो कल्पना में भी नहीं आया था कि यह कभी छपेगा । साने गुरूजी जैसा सह्रदय और शार्ट हैण्ड से लिख सकने वाला लेखक यदि नहीं मिल पाता तो जिसने कहा और जिन्होंने सुना उन्ही में इसकी परिसमाप्ति हो जाती । "
जब साने गुरूजी को धूलिया जेल से हटाकर नासिक जेल में भेज दिया गया तो वहां रहकर उन्होंने पत्र, श्यामयी आई आदि के रूप में कई कवितायेँ , संस्मरण तथा गद्द साहित्य लिख डाला । जेल से छूटने के बाद वे अज्ञात रहने लगे और अज्ञातवास में पूना में रहते हुए उन्होंने मराठी भाषा की कोई दो हजार ओवियों का संकलन किया जो बाद में दो खण्डों में प्रकाशित हुआ । स्वतंत्रता के बाद साने गुरूजी देश में जगह - जगह शान्ति स्थापना के लिए जाने लगे । भारत माता की सेवा ही उनका एकमात्र कार्य था जिसके लिए उन्होंने बहुत परिश्रम किया ।
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