महर्षि रमण सिद्ध पुरुष थे । मौन ही उनकी भाषा थी । उनके सत्संग में सब को एक जैसे ही सन्देश मिलते थे मानो वे वाणी से दिया हुआ प्रवचन सुन कर उठे हों । बन्दर , तोते , सांप , कौए सभी को ऐसा अभ्यास हो गया था कि आगन्तुकों की भीड़ से बिना डरे झिझके अपने नियत स्थान पर आ बैठते थे और मौन सत्संग समाप्त होते ही उड़कर अपने - अपने घोंसले को चले जाया करते थे ।
महर्षि के आश्रम से कुछ दूर एक अध्यापक रहता था । महर्षि की कीर्ति सुनकर उसने भी इरादा किया कि वह भी उनके सामान त्यागी - तपस्वी बनेगा , फिर उनके पास जायेगा । किन्तु वैराग्य तो दूर रहा , उसके चित में बुरी - बुरी भावनाओं का उदय होने लगा । अत: वह महर्षि की शरण में गया महर्षि में अन्य लोगों के मन की बात जानने की शक्ति थी । इस अध्यापक को देखकर वे मुस्कराने लगे और यह भाव प्रकट किया कि---- " पंख आने के पहले ही उड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए , अन्यथा नीचे गिरना पड़ेगा । सभी साधक एक ही मार्ग पर नहीं चल सकते । पहले तो साधक को उचित है कि परहित को ही स्वार्थ समझ कर समाज सेवा की शक्ति प्राप्त करे । जब इसमें कृत कार्य हो जाये तब एकांत में रहकर साधना की अभिलाषा करे । "
महर्षि के आश्रम से कुछ दूर एक अध्यापक रहता था । महर्षि की कीर्ति सुनकर उसने भी इरादा किया कि वह भी उनके सामान त्यागी - तपस्वी बनेगा , फिर उनके पास जायेगा । किन्तु वैराग्य तो दूर रहा , उसके चित में बुरी - बुरी भावनाओं का उदय होने लगा । अत: वह महर्षि की शरण में गया महर्षि में अन्य लोगों के मन की बात जानने की शक्ति थी । इस अध्यापक को देखकर वे मुस्कराने लगे और यह भाव प्रकट किया कि---- " पंख आने के पहले ही उड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए , अन्यथा नीचे गिरना पड़ेगा । सभी साधक एक ही मार्ग पर नहीं चल सकते । पहले तो साधक को उचित है कि परहित को ही स्वार्थ समझ कर समाज सेवा की शक्ति प्राप्त करे । जब इसमें कृत कार्य हो जाये तब एकांत में रहकर साधना की अभिलाषा करे । "
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