महात्मा विजय कृष्ण गोस्वामी उन संन्यासियों में गिने जाते हैं जिन्होंने संन्यास का ध्येय --- आत्म - कल्याण मात्र न रखकर सारे समाज को ज्ञान का प्रकाश और नैतिक चेतना प्रदान करना माना । उनकी शिक्षाओं में मुख्य बात यह रही है कि आत्म - हीनता का उदय , पाप और बुराइयों को छुपाने से होता है । यदि लोग अपने दोषों को समझकर , उन्हें स्वीकार कर लें और उनका दंड भी उसी साहस के साथ भुगत लिया करें तो व्यक्ति की आत्मा में इतना बल है कि और कोई साधन - सम्पन्नता न होने पर भी वह संतुष्ट जीवन जी सकता है ।
विजयकृष्ण गोस्वामी स्वयं इसी मार्ग का अनुसरण कर आत्म - स्थिति को प्राप्त कर सके थे । अपने संशोधन के मामले में वे बचपन से ही कठोर थे । बुराई के दंड से मुकर जाना उन्होंने कभी न सीखा था । उनकी शिक्षा है ----' अपने आचरण को गिराओ मत , भूल को स्वीकार करो । उसका प्रायश्चित करने से आत्मा की जटिल ग्रंथियां मुक्त होती चलेंगी और क्रमशः अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ते चलोगे । '
विजयकृष्ण गोस्वामी स्वयं इसी मार्ग का अनुसरण कर आत्म - स्थिति को प्राप्त कर सके थे । अपने संशोधन के मामले में वे बचपन से ही कठोर थे । बुराई के दंड से मुकर जाना उन्होंने कभी न सीखा था । उनकी शिक्षा है ----' अपने आचरण को गिराओ मत , भूल को स्वीकार करो । उसका प्रायश्चित करने से आत्मा की जटिल ग्रंथियां मुक्त होती चलेंगी और क्रमशः अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ते चलोगे । '
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