श्री चितरंजनदास के पिता श्री भुवन मोहन एक अच्छे वकील थे पर अति उदार होने के कारण सिर से पैर तक कर्ज में डूब गये । उन्हें और उनके पुत्र चितरंजनदास को दीवालिया घोषित कर दिया गया ।
पर इतना होने पर भी दास बाबू के ह्रदय में किसी प्रकार की दीनता नहीं आई । उनको अपने ऊपर लगे ' दीवालिया ' के कलंक को मिटाने की बड़ी चिंता थी । चितरंजनदास के पिता दस लाख रूपये का कर्ज छोड़कर मरे थे । नवयुवक दास ने निश्चय किया कि वे सब कर्ज चुकायेंगे । कर्ज रिश्तेदारों का था । उनकी परेशानी को देखते हुए वे कर्ज वापस लेना नहीं चाहते थे । पर दास बाबू भी किसी का ऋण रखना अपनी बेइज्जती समझते थे ।
कुछ वर्षों बाद जब उनकी बैरिस्टरी अच्छी तरह चल निकली तो उन्होंने तमाम कर्जदारी का एक - एक पैसा चुका दिया । बाद में उन्होंने विज्ञापन प्रकाशित कराया कि जिनका कर्ज हो वे अपना पैसा ले जाएँ । बहुत दिनों तक वह पैसा जमा रहा तब उन्होंने ढूँढ - ढूँढकर कर्जदारों का पता लगाया और उनका हिसाब चुकता किया फिर अपना तथा अपने पिता का नाम दीवालिया की सूची से कटवा दिया ।
पर इतना होने पर भी दास बाबू के ह्रदय में किसी प्रकार की दीनता नहीं आई । उनको अपने ऊपर लगे ' दीवालिया ' के कलंक को मिटाने की बड़ी चिंता थी । चितरंजनदास के पिता दस लाख रूपये का कर्ज छोड़कर मरे थे । नवयुवक दास ने निश्चय किया कि वे सब कर्ज चुकायेंगे । कर्ज रिश्तेदारों का था । उनकी परेशानी को देखते हुए वे कर्ज वापस लेना नहीं चाहते थे । पर दास बाबू भी किसी का ऋण रखना अपनी बेइज्जती समझते थे ।
कुछ वर्षों बाद जब उनकी बैरिस्टरी अच्छी तरह चल निकली तो उन्होंने तमाम कर्जदारी का एक - एक पैसा चुका दिया । बाद में उन्होंने विज्ञापन प्रकाशित कराया कि जिनका कर्ज हो वे अपना पैसा ले जाएँ । बहुत दिनों तक वह पैसा जमा रहा तब उन्होंने ढूँढ - ढूँढकर कर्जदारों का पता लगाया और उनका हिसाब चुकता किया फिर अपना तथा अपने पिता का नाम दीवालिया की सूची से कटवा दिया ।
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