महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी ---- इन महापुरुषों के व्यक्तित्व और कर्तव्य को काल की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता , ये चिरंतन हैं । अमर हैं । आज भी और हर काल में भी ये नाम उतने ही प्रभामय और प्रेरक हैं और रहेंगे ।
व्यक्ति की अपनी नैतिकता अपना आदर्श और अपना स्वाभिमान तथा राष्ट्रीय - गौरव वह अलंकरण हैं जिनके आगे राज्य वैभव और विलास के समस्त साधन तुच्छ हैं |
जिन दिनों महाराणा प्रताप उदयसागर के तट पर अपने आदिवासी सहायकों के साथ शिविर डाले हुए थे ---- वे एक ओर अपने सरदारों - सामंतों को अपनी मातृभूमि के खोये हुए भाग की पुन: प्राप्ति के लिए संगठित और शक्तिशाली बना रहे थे तथा दूसरी ओर आदिवासियों में राष्ट्रीय भावना जगा रहे थे , तभी दुर्योग से जयपुर के राजा मानसिंह जो अकबर की आधीनता स्वीकार कर चुके थे और अपनी बहिन का विवाह भी उससे कर चुके थे , दक्षिण विजय करते हुए उधर से होकर निकले।
महाराणा ने मानसिंह का स्वागत किया और उनके स्वागत में अच्छा - खासा भोज भी दिया , पर जहाँ साथ बैठकर भोजन करने की बात थी , राणा टाल गये ।
स्वतंत्रता प्रेमी भील आदिवासियों के साथ एक ही पंगत में बैठकर भोजन करने वाले राणा को अपने स्वार्थ और सुख के लिए अपने जातीय और राष्ट्रीय स्वाभिमान को भुलाकर विधर्मी विदेशी अकबर की आधीनता स्वीकार करने व अपनी बहन ब्याह देने वाले आदर्शच्युत मानसिंह के साथ भोजन करना गँवारा न हुआ । उन्होंने कहला भेजा उनके सिर में दर्द है । मानसिंह दर्द को समझ गया ।
मानसिंह और अन्य राजा मन ही मन अपनी क्षुद्रता को समझ रहे थे । न केवल इन राजाओं ने , स्वयं अकबर ने भी राणा की नैतिक विजय का लोहा माना ।
अकबर का दरबारी रत्न अब्दुर्रहीम खानखाना राणा की महानता पर मुग्ध था । बीकानेर महाराज का भाई उसके मुँह के सामने महाराणा के अपराजेय व्यक्तित्व और स्वातंत्र्य प्रेम के गीत गाता था महाराणा प्रताप का आदर्शमय जीवन , उनका स्वातंत्र्य प्रेम हम सबके लिए एक प्रेरणा है , उन्होंने अनीति और अत्याचार के आगे हार नहीं मानी , एक महानतम भावना को उच्चतम विकास दिया ।
व्यक्ति की अपनी नैतिकता अपना आदर्श और अपना स्वाभिमान तथा राष्ट्रीय - गौरव वह अलंकरण हैं जिनके आगे राज्य वैभव और विलास के समस्त साधन तुच्छ हैं |
जिन दिनों महाराणा प्रताप उदयसागर के तट पर अपने आदिवासी सहायकों के साथ शिविर डाले हुए थे ---- वे एक ओर अपने सरदारों - सामंतों को अपनी मातृभूमि के खोये हुए भाग की पुन: प्राप्ति के लिए संगठित और शक्तिशाली बना रहे थे तथा दूसरी ओर आदिवासियों में राष्ट्रीय भावना जगा रहे थे , तभी दुर्योग से जयपुर के राजा मानसिंह जो अकबर की आधीनता स्वीकार कर चुके थे और अपनी बहिन का विवाह भी उससे कर चुके थे , दक्षिण विजय करते हुए उधर से होकर निकले।
महाराणा ने मानसिंह का स्वागत किया और उनके स्वागत में अच्छा - खासा भोज भी दिया , पर जहाँ साथ बैठकर भोजन करने की बात थी , राणा टाल गये ।
स्वतंत्रता प्रेमी भील आदिवासियों के साथ एक ही पंगत में बैठकर भोजन करने वाले राणा को अपने स्वार्थ और सुख के लिए अपने जातीय और राष्ट्रीय स्वाभिमान को भुलाकर विधर्मी विदेशी अकबर की आधीनता स्वीकार करने व अपनी बहन ब्याह देने वाले आदर्शच्युत मानसिंह के साथ भोजन करना गँवारा न हुआ । उन्होंने कहला भेजा उनके सिर में दर्द है । मानसिंह दर्द को समझ गया ।
मानसिंह और अन्य राजा मन ही मन अपनी क्षुद्रता को समझ रहे थे । न केवल इन राजाओं ने , स्वयं अकबर ने भी राणा की नैतिक विजय का लोहा माना ।
अकबर का दरबारी रत्न अब्दुर्रहीम खानखाना राणा की महानता पर मुग्ध था । बीकानेर महाराज का भाई उसके मुँह के सामने महाराणा के अपराजेय व्यक्तित्व और स्वातंत्र्य प्रेम के गीत गाता था महाराणा प्रताप का आदर्शमय जीवन , उनका स्वातंत्र्य प्रेम हम सबके लिए एक प्रेरणा है , उन्होंने अनीति और अत्याचार के आगे हार नहीं मानी , एक महानतम भावना को उच्चतम विकास दिया ।
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