ठाकुर रोशनसिंह डाकू थे । वह पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रन्तिकारी और सुधारक के संपर्क में आये । ' बिस्मिल ' ने उन्हें सदाचरण और धर्माचरण का पाठ पढ़ाया । उनके जीवन का रूपांतरण हो गया , रोशनसिंह अब डाकू से देशभक्त क्रान्तिकारी बन गये ।
काकोरी केस में ठाकुर रोशनसिंह को फाँसी की सजा सुनाई गयी । वे पूरे आठ महीने तक फाँसी घर में रहे --- यहाँ उन्होंने अनोखे ढंग की वीरता का परिचय दिया ----- यहाँ उनकी नियमित दिनचर्या थी , प्रात: चार बजे निद्रा त्याग , फिर शौच , व्यायाम , स्नान , उपासना , हवन और उसके बाद हिन्दी , उर्दू साहित्य और धार्मिक पुस्तकों का लम्बा स्वाध्याय -- जीवन के एक - एक क्षण का बड़ी सावधानी के साथ सदुपयोग । उनकी यह जीवन -चर्या देख कर काकोरी केस के एक क्रान्तिकारी अभियुक्त को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनका यह आश्चर्य तब और बढ़ गया जब ठाकुर रोशनसिंह ने बंगला भाषा सीखने का क्रम चलाया और थोड़े ही दिनों में वे बंगला भाषा का सत्साहित्य भी पढने लगे ।
अब उन साथी से न रहा गया , वह पूछ ही बैठा ---- ठाकुर साहब अब नयी भाषा सीख कर क्या करेंगे ! "
" क्यों अब क्या हो गया । "
साथी ने कहा ---- " आपको तो फाँसी पर चढ़ना है । आपको इससे हलकी सजा होने वाली है नहीं फिर इस स्वाध्याय का सदुपयोग कब करेंगे । "
ठाकुर साहब ने कहा ----- " भाई जब तक जीवित हैं , सांस चलने के साथ ही कर्म भी चलता रहना चाहिए l इस जन्म में इसका लाभ नहीं मिल सकेगा यह सोचकर कर्म ही न करना तो बहुत बड़ी भूल होगी l इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में तो इसका लाभ मिलेगा और फिर आज ही तो फाँसी नहीं होने वाली है , तब तक भी तो इनसे बहुत कुछ लाभ उठाया जा सकता है l "
कर्ममय जीवन के प्रति ऐसी निष्ठा रखने वाले ठाकुर रोशनसिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी हुई । । फाँसी के दिन वे तैयार बैठे थे -- गीता हाथ में लेकर वंदेमातरम् का जय घोष करते और
' ॐ ' का स्मरण करते हुए फांसी के फंदे पर हँसते - हँसते झूल गये । जेल के बाहर हजारों की संख्या में जनता उपस्थित थी जिनकी आँखों में आँसू थे ।
कल का डाकू रोशनसिंह सन्मार्ग पर चलकर आज हजारों के लिए श्रद्धास्पद बन गया ।
काकोरी केस में ठाकुर रोशनसिंह को फाँसी की सजा सुनाई गयी । वे पूरे आठ महीने तक फाँसी घर में रहे --- यहाँ उन्होंने अनोखे ढंग की वीरता का परिचय दिया ----- यहाँ उनकी नियमित दिनचर्या थी , प्रात: चार बजे निद्रा त्याग , फिर शौच , व्यायाम , स्नान , उपासना , हवन और उसके बाद हिन्दी , उर्दू साहित्य और धार्मिक पुस्तकों का लम्बा स्वाध्याय -- जीवन के एक - एक क्षण का बड़ी सावधानी के साथ सदुपयोग । उनकी यह जीवन -चर्या देख कर काकोरी केस के एक क्रान्तिकारी अभियुक्त को बड़ा आश्चर्य हुआ । उनका यह आश्चर्य तब और बढ़ गया जब ठाकुर रोशनसिंह ने बंगला भाषा सीखने का क्रम चलाया और थोड़े ही दिनों में वे बंगला भाषा का सत्साहित्य भी पढने लगे ।
अब उन साथी से न रहा गया , वह पूछ ही बैठा ---- ठाकुर साहब अब नयी भाषा सीख कर क्या करेंगे ! "
" क्यों अब क्या हो गया । "
साथी ने कहा ---- " आपको तो फाँसी पर चढ़ना है । आपको इससे हलकी सजा होने वाली है नहीं फिर इस स्वाध्याय का सदुपयोग कब करेंगे । "
ठाकुर साहब ने कहा ----- " भाई जब तक जीवित हैं , सांस चलने के साथ ही कर्म भी चलता रहना चाहिए l इस जन्म में इसका लाभ नहीं मिल सकेगा यह सोचकर कर्म ही न करना तो बहुत बड़ी भूल होगी l इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में तो इसका लाभ मिलेगा और फिर आज ही तो फाँसी नहीं होने वाली है , तब तक भी तो इनसे बहुत कुछ लाभ उठाया जा सकता है l "
कर्ममय जीवन के प्रति ऐसी निष्ठा रखने वाले ठाकुर रोशनसिंह को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी हुई । । फाँसी के दिन वे तैयार बैठे थे -- गीता हाथ में लेकर वंदेमातरम् का जय घोष करते और
' ॐ ' का स्मरण करते हुए फांसी के फंदे पर हँसते - हँसते झूल गये । जेल के बाहर हजारों की संख्या में जनता उपस्थित थी जिनकी आँखों में आँसू थे ।
कल का डाकू रोशनसिंह सन्मार्ग पर चलकर आज हजारों के लिए श्रद्धास्पद बन गया ।
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